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सच्ची प्रेम कहानी मांझी की

सच्ची घटनाओं को परदे पर उतारना अपने आप में मुश्किल काम है। वास्तविक चरित्र के बारे में दर्शकों की जानकारी कुछ ज्यादा ही होती है और वे फिल्म देखते वक्त भूल जाते हैं कि घटनाओं को परदे पर उतारने के लिए नाटकीयता का सहारा लेना जरूरी होता है। मांझी- द माउंटेन मैन इसी का उदाहरण है।
सच्ची प्रेम कहानी मांझी की

दशरथ मांझी की कहानी को परदे पर उतारने के लिए निर्देशक केतन मेहता ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी है। एक सच्ची प्रेम कहानी को सच्चे ढंग से पेश करने के लिए उन्होंने सच के बहुत करीब सा दिखता एक कलाकार दशरथ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) को खोजा है। लेकिन यह शायद हिंदी सिनेमा या उसे बनाने वाले का दुर्भाग्य है कि अच्छी फिल्मों में भी मसाला तेज हो जाता है।

 

बिहार में गया के अति पिछड़े गहलौर गांव के दशरथ मांझी ने शाहजहां से भी बड़ा काम अपनी पत्नी के लिए किया। पत्नी की खातिर एक विशालकाय पहाड़ का सीना चीर कर एक रास्ता बना दिया। इस शिद्दत को नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने परदे पर भरभूर जिया है। दशरथ की बीवी के रूप में फगुनिया (राधिका आप्टे) ने भी अपनी अनगढ़ मुस्कराहट से पूरी फिल्म में जीवंतता बनाए रखी है।

 

फिर भी कहीं कोई सिरा है जो छूटता है। शायद उसकी वजह वह कालखंड है, जो परदे पर जीवंत नहीं हो पाया है। सन 1950 का दशक अपना प्रभाव नहीं छोड़ता। हालांकि परदे पर उस कालखंड को दिखाना केतन का उद्देश्य नहीं था। उनका उद्देश्य मांझी की जीजीविषा को परदे पर साकार करना था। केतन उसमें सफल रहे हैं, लेकिन बीच में नक्सली, दिल्ली कूच जैसी घटनाएं मांझी की रफ्तार को धीमा करती हैं। साठ के दशक के ठाकुर की भूमिका में तिग्मांशु धूलिया बहुत असर नहीं छोड़ पाए हैं।  

 

फिर भी इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। एक ऐसा व्यक्ति जो पत्रकार से अपना अखबार निकालने के लिए कहता है। पत्रकार इसे ‘कठिन काम’ कहता है तो मांझी पलट कर कहते हैं, ‘यह पहाड़ तोड़ने से भी कठिन है क्या।’ जब कोई भी कठिनाई पहाड़ सी लगे तो वाकई दशरथ मांझी के बारे में सोचना चाहिए।  

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