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राजकोषीय घाटा नहीं, मांग बढ़ाने की चिंता जरूरी: प्रो. अरुण कुमार

जाने-माने अर्थशास्त्री और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत प्रोफेसर अरुण कुमार देश में मौजूदा आर्थिक हालात को वैश्विक आर्थिक सुस्ती की देन मानते हैं। उनका यह भी मानना है कि हर सरकार राजकोषीय घाटा कम करने के लिए ही चिंतित रहती है और उसी मुताबिक बजट बनाकर किसी लक्ष्य तक पहुंचने में विफल रहती है। इसे वह गलत धारणा मानते हैं। आउटलुक के राजेश रंजन से बातचीत में उन्होंने रोजगार, घरेलु मांग, विकास दर आदि बढ़ाने पर जोर दिया।
राजकोषीय घाटा नहीं, मांग बढ़ाने की चिंता जरूरी: प्रो. अरुण कुमार

प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि इस साल का बजट ऐसे अनिश्चित हालात में बनाया गया है जब औद्योगिक विकास 1 से 2 प्रतिशत की रफ्तार से ही बढ़ रहा है। उन्होंने कहा,अर्थव्यवस्था में इस वक्त वैश्विक और अंदरूनी दोनों तरह की अस्थिरता यानी आर्थिक सुस्ती बनी हुई है। जिस तरह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दूसरे कार्यकाल में नीतिगत निष्क्रियता थी,वही स्थिति राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में भी दिख रही है। मौजूदा सरकार की येाजनाओं को साकार करने का कोई रोडमैप नहीं दिख रहा है। कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती के कारण पेट्रोलियम पदार्थों, सोना सहित 23 बड़ी कमोडिटी के दाम गिर गए हैं। दुनिया में मांग पिछले 14-15 महीनों से नहीं बढ़ने के कारण हमारा निर्यात 14 से 22 प्रतिशत तक कम हो गया है। हमारे लिए विदेशी बाजार अभी उपलब्ध नहीं है और इसलिए हमारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कम हो गया है। डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है जिसका असर हमारी मुद्रास्फीति पर पड़ा है लेकिन चालू खाता घाटा बेहतर हुआ है। आयात शुल्क में गिरावट आई है, पेट्रोलियम पर सब्सिडी बोझ कम हुआ है और पिछले छह-सात महीने में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) शून्य से नीचे चल रहा है।

 

प्रोफेसर कुमार ने बताया कि वित्तीय अनिश्चितता के बीच ये सब कुछ सकारात्मक पक्ष तो दिख रहे हैं लेकिन चूंकि दुनिया में मांग कम हो रही है और इस वक्त हमें जितना फायदा हो सकता था उससे ज्यादा नुकसान होने की संभावना है। हमारी औद्योगिक विकास दर औसतन 1-2 प्रतिशत ही है। ऑटोमोबाइल सेक्टर की विकास दर भी शून्य से नीचे आ गई। सन 2007-08 में निवेश दर सर्वाधिक 38 प्रतिशत थी और अब यह 28 से 30 प्रतिशत पर आ गई। वर्तमान में सत्ता पूरी तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में केंद्रित हो गई है, फाइलें आगे नहीं बढ़ रही हैं, कारोबारी शिकायतें करने लगे हैं इसलिए अनिश्चित स्थिति महसूस करते हुए निजी क्षेत्र निवेश नहीं करने से कतराने लगे हैं। सरकार की योजनाओं को कार्यान्वित करने की इच्छाशक्ति स्पष्ट नहीं हो रही है। सरकार विदेशी निवेश पर निर्भरता दिखा रही है लेकिन यह तो हमारे कुल निवेश का दस प्रतिशत है। अगर यह बढक़र 13-14 प्रतिशत भी हो जाए तो हमारे कुल निवेश में आई 38 प्रतिशत की गिरावट की भरपाई नहीं हो पाएगी।

 

प्रो. कुमार ने बताया कि सरकार की घरेलू निवेश की नीति भी स्पष्ट नहीं है। लिहाजा सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश तेज करना चाहिए। बारहवीं योजना की स्थिति भी अनिश्चित बनी हुई है। पिछले छह-सात वर्षों से राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए 6-7 लाख करोड़ की योजनाओं में कटौती हो रही है। इस राशि का रोजगार, अधोसंरचना विकास आदि में अतिरिक्तत मांग के लिए इस्तेमाल हो सकता था। इससे सरकार की कई योजनाएं ठप पड़ जाती हैं। सरकार को राजकोषीय घाटा बढ़ने की स्थिति में रेटिंग कम होने की आशंका रहती है लेकिन यह गलत धारणा है। विकास दर गिरती रहे तो निश्चित तौर पर रेटिंग कम हो जाएगी लेकिन राजकोषीय घाटा 5 प्रतिशत से लेकर 12-13 प्रतिशत (2005-08) भी हो जाता है तो भी रेटिंग कोई बड़ी समस्या नहीं होती। मौजूदा 3.5 प्रतिशत के बजाय राजकोषीय घाटा 5.5 प्रतिशत हो जाने पर इस दो प्रतिशत राशि का इस्तेमाल मांग बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। सरकार उद्योगों को 6 लाख करोड़ रुपये की कर रियायत देती है, इसमें भी कटौती होनी चाहिए।

 

प्रो. कुमार कहते हैं, आज सरकार जिसे समाधान समझती है, वही समस्या बनी हुई है। जब मांग तेज करनी हो तो राजकोषीय घाटा बढ़ाने में कोई नुकसान नहीं है। अर्थव्यवस्था की वास्तविक विकास दर 7.5 हो ही नहीं सकती। उद्योग, कृषि, सेवा क्षेत्र (कर बढ़ने के कारण) में मंदी है तो यह विकास दर महज 4 से 4.5 प्रतिशत ही रहेगी। लेकिन सरकार 7.5 प्रतिशत विकास दर से ही बजट आकलन करती है और सब कुछ गडबड़ हो जाता है। सरकारी योजनाओं के व्यय और सामाजिक क्षेत्र में कटौती हो जाती है, कर राजस्व अर्जन भी कम हो जाएगा।

 

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