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एक लड़की की दास्तां-आईने में उतरते हुए

कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी प्रकाशित। ‘अनभै’ पत्रिका के पुस्तक-संस्कृति विशेषांक का संपादन। काव्य-पाठ कार्यक्रमों एवं साहित्यिक-गोष्ठियों में भागीदारी। साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विषयों से जुड़े अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में सक्रिय सहभागिता। कहानी के लिए कलमकार फाउंडेशन के लिए सांत्वना पुरस्कार।
एक लड़की की दास्तां-आईने में उतरते हुए

पार्टी अंतिम दौर में थी। गिनती के कुछ लोग रह गए थे। विधायक जी बहुत खुश थे। बुलाकर सबके सामने पीठ थपथपाई। मन गीला गीला सा हो रहा था। धुंधली नजरों से पापा के पैर ढूंढ़ रहा था कि काश! वह देख पाते। गांव से हजारों किलोमीटर दूर मोतियों के शहर में उनका बेटा कितना बड़ा इवेंट मैनेजर बन गया था। कल ही चेन्नई से एक पार्टी का फोन आ गया था। इसके बाद वहां के लिए रवाना होना था।

 

 

आंखों में थकान, सुकूं और सफल होते जाने का नशा पसरता जा रहा था। साथ में काम करने वाले भी खूब खुश थे। पिछले एक हफ्ते से रात दिन का अंतर हम लोग भूल गए थे। आंखें इस तरह भारी होने लगीं कि एक बार बंद होने के बाद न जाने कितने दिनों बाद खुलेंगी। पूरा शरीर टूट रहा था। रमेश बोला ‘सर, क्षेत्र में नई-नई छबीली आई है कहिए तो इंतजाम करूं?’ इशारा पाते ही रमेश व्यवस्था में लग गया। पिछले आठ महीने से अकेले रहते हुए कोई नई बात नहीं थी यह। मगर रात कुछ भयावह लग रही थी। अतीत और यादें हथौड़े की तरह दिमाग में धमक रहे थे।

 

 

होटल के ही दूसरे माले पर अपने लिए कमरा बुक था। कमरे में घुसा तो सामने दीवार पर आदमकद बल्कि कहें तो पूरा दीवारकद आईना लगा हुआ था। कमरे में घुसते हुए लग रहा था, सामने से भी कोई घुसता आ रहा है। कमरा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बढ़ता हुआ मैं बिल्कुल आईने के सामने खड़ा हो गया। आईने में एक और मैं। बिल्कुल आमने-सामने। पूरा का पूरा आईने में उतर गया था। अपना ही चेहरा देखकर अजीब सी सिहरन कौंध गई। भयवश बेड की ओर मुड़ गया। बेड पर डरी, सहमी, मुड़ी, तुड़ी लड़की बैठी हुई थी। बिल्कुल शादी वाले जोड़ों में सजी धजी। खुद को संभालते हुए बेड पर हाथ रखा तो चिहुंक उठी। सिकुड़ गई। कछुए की मानिंद वह अब अपने खोल में थी। झटके से हाथ नहीं बढ़ा पा रहा था। गुस्सा आ रहा था खुद पर। बिना भूमिका पढ़े किताब न पढ़ने की आदत यहां भी हावी थी।

‘नाम क्या है?’

‘उसका क्या करना है? दो घंटे के लिए हूं, जो करना है करके छुट्टी कर।’

 

 

पूर्वांचल की अवधी मिक्स हिंदी लेकिन आवाज में बनावटीपन सिरे से झलक रहा था। आवाज से न जाने दिल में या दिमाग में लरजिश सी हुई। मैं ठिठका। मैं अड़ गया। खामोशी का रुमाल हमारे बीच पसरा था। कौन उठाए?

‘रश्मि’

‘रश्मि? तेरा नाम?’

‘पसंद नहीं आया? चल तू रेशम, गुलाबो, चांद कुछ भी कह ले। यही सब पसंद है न तुम लोगों को?’

‘नहीं। बात पसंद की नहीं है। मगर रश्मि नाम तुम लोगों पर ठीक नहीं लगता।’

‘हम लोग मतलब?’

‘धंधेवालियों, (थोड़ा रुककर) वेश्याओं पर’

‘रंडी कह न सीधे-सीधे। इतनी कोशिश क्यों कर रहा है?’

‘एक ही बात है।’

‘क्यों ठीक नहीं लगता? तेरी बहन का नाम है क्या?’

चटाक। जैसे थप्पड़ लगा हो। आंखें खुली रह गईं। हाथ फड़का। उठ गया होता। मगर न जाने क्यों संभला रहा। पार्टी का नशा जाने कब का उतर चुका था।

‘नहीं। रश्मि नाम सुनकर लगता है कोई लड़की होगी। कॉलेज जाती होगी। पढ़ती होगी।’

‘तो रंडियां लड़की नहीं होतीं? कि कॉलेज नहीं गई होतीं? कि पढ़ी नहीं होतीं?’

‘तू तो बिल्कुल पीछे ही पड़ गई।’

‘बात तो तूने शुरू की थी।’

 

 

वह धीरे से उठी। टेबल से बोतल उठाई, आहिस्ता से दांत लगाकर, मंझी हुई पियक्कड़ की तरह खोल ली। दो गिलासों में ढालने लगी। इस तरफ से गिलासों में उसकी आंखें मछलियों की तरह तैरती नजर आ रही थीं। मैं घूरता जा रहा था।

 

 

‘क्यों? मुझे नहीं पीना चाहिए क्या?’

‘नहीं, नहीं। मतलब हां ऽ ऽ, क्यों नहीं तुम भी पिओगी तो और मजा आएगा।’

पीने पिलाने का दौर चलता रहा। उसे एकदम से बाहों में खींच नहीं पा रहा था। शहर की अजनबियत ज्यादा हावी थी। किसी निर्जन द्वीप पर आ गया था। साथ होते हुए भी मन के भीतर गहरा सन्नाटा पसरा था। बाहर, पार्टी का शोर, शहर का शोर, होटल में आने लाने वालों का शोर था। मेरे दिल ने मानो कई युगों से मानव के पदचाप ही नहीं सुने। दिल के तारों में कोई आवाज नहीं, कोई खनक नहीं। दुख या विषाद जैसा भी कुछ नहीं। दिल मानो विशालकाय चट्टानों से भरा सुनसान, वीरान द्वीप बन गया था। उसकी बातें इन चट्टानों पर दूर से गरज रहे समुद्र की लहरों के थपेड़े की तरह लग रही थीं। 

 

 

बाजारू की जगह हम दोस्ताना होते जा रहे थे। मेरे लिए सामान्य बात नहीं थी। ऐसा कभी नहीं हुआ था। ऐसी लड़कियां मुझे गोश्त की तरह लगतीं जिसे शोरबे की अंतिम बूंद तक दांतों तले चबाता रहता था। खरामा-खरामा वह लुढ़कने लगी। झुककर बिल्कुल पास आ चुकी थी। उसका हाथ थाम लिया। गिजगिजा सा महसूस हुआ। बचपन में केंचुआ या मेंढक पकड़ने जैसी सिहरन हुई। यादों को परे धकेला। हाथ पर कलाई से लेकर कुहनी तक अंदर की तरफ उभरे हुए गोलाई वाले निशान थे, जैसे हाथ भर चमड़े की चूडि़यां पहन रखी हों।

 

 

‘यह क्या है?’

उसने हाथ खींच लिया। मुझसे अधिक होश में थी। शरम की लरजिश उसके चेहरे पर जब तब चली आ रही थी। धंधे में लगी लड़कियों के चेहरे पर यह सब कम ही दिखता है। बार-बार मैं अड़ जा रहा था।

 

 

‘सुहाग की निशानी है। तू अपना काम कर और मुझे जाने दे।’ लड़खड़ाती और कांपती आवाज थी। बिलकुल बेपरवाह।

 

 

‘वाह मेरी जान! रंडियों के पास भी सुहाग की निशानी होने लगी? वाह!’ उसे चोट पहुंचाने की गरज से बोला था लेकिन उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई। दोनों हाथ पकड़े और झट आंखों के सामने खींच लिया। बाएं हाथ में और भी गहरा निशान था। चूडि़यों की तरह गोल नहीं बल्कि जैसे पूरा चमड़ा ही उतार लिया गया हो। नई चमड़ी जगह बना रही थी। रोमकूप तक नहीं बने थे। छूने पर वैसी ही गिजगिजी सी लगी। हम दोनों का नशा उतर चुका था। 

 

 

रश्मि पिघलने लगी। सिसकने लगी थी। जैसे बहुत दिनों बाद अपने गांव-देश का कोई मिल गया हो। उसने और पीने की इच्छा जाहिर की। थोड़ी देर में दो बोतल लेकर लौटा। एक उसे थमाकर एक खुद लेकर कमरे के बाहर सामने वाली बालकनी में बैठ गया। मैंने दरवाजा बंद कर लिया था।

 

 

मेरी जिद से हारकर रश्मि ने बात मान ली। अपनी कहानी सुनाने लगी। आज तक सोच नहीं पाता कि उस रात मैंने सही किया था या गलत? वह आखिरी रात थी। मैं खरीदे जा सकने वाले उस शारीरिक सुख को फिर नहीं भोग सका।

 

 

मेरा सोचना सही था। रश्मि अपने पूर्वांचल से ही थी। जहां सामान्य ज्ञान की किताबों से हारे लोग आखिरी उम्मीद का दामन थामे इन बड़े शहरों में आते हैं। किताबी ज्ञान से मैं भी हारा हुआ था। बाबू लायक भी सिद्ध नहीं कर पाया था, खुद को। आखिर में टप्पू भईया का साथ पकड़े बीवी और बिटिया को गांव छोड़कर चला आया। चारमीनार की बुलंदियों से कुछ उम्मीद पाले।

 

 

हां, तो रश्मि ग्यारहवीं में थी जब मेले में चाट का ठेला लगाने वाले से उसकी आंखें चार हो गईं। दोनों अगले बरस के मेले का भी इंतजार नहीं कर सके। भागकर मुंबई पहुंच गए। घरवालों से नाता टूट गया। पता नहीं उन्होंने ढूंढ़ने की कोशिश की या नहीं लेकिन रश्मि ने न लौटने की कसम खा ली थी।

 

 

प्रेमी से पति बन चुका चाट वाला अस्थिर मन वाला निकला। मुंबई में बड़ा पाव, आलू बोंडा से लेकर भेलपूरी तक का ठेला लगाया। रश्मि भी मदद करती रही। वह इस उम्मीद में काम बदलता रहा कि जल्दी से अमीर बन जाएगा। उसकी उम्मीदें मुंबई की ऊंची-ऊंची इमारतों जैसी थीं। उन इमारतों की छाया इतनी गहरी थी कि उसके सपने नहीं उग सके। उसने सब काम बंद कर दिया। रश्मि खूबसूरत थी। पेट की आग ने उसके हौंसलों को उड़ने लायक हल्का कर दिया। उसे बार में डांस करने की नौकरी मिल गई। वह अपनी खूबसूरती और छुप-छुपकर डांस करने की आदत पर खूब इतराई। आखिर दल्ले ने पच्चीस-तीस लड़कियों में से केवल तीन को चुना था, जिनमें वह भी शामिल थी।

 

 

उनकी जिंदगी में ऊब वाला ठहराव नहीं आया था। पति पैसा खर्च करने में मदद करने लगा। इमारतों पर टंगी उसकी उम्मीदों में जान बाकी थी। जुए से उसे सांस मिल सकती थी। यह बात उसे पता थी। शराब से सांस मिल सकती थी। यह उसके दिल को पता था। रश्मि को डांस की लत और पति को जुए और शराब की लत। जिंदगी ठीक ठाक घिसट रही थी कि अचानक मुंबई में बार बंद हो गए। वही दल्ला दोनों को हैदराबाद लेकर आ गया। यहां काम नहीं मिला। कोई परिचित भी नहीं था। इतने दिन में मुंबई से जो अपनापा हो गया था। वह भी गायब हो गया। ऐसे अजनबी माहौल में एक दिन उसे पता चला कि उसके मरद ने उसे बेच दिया है। कुछ बातें मुझे आज तक ज्यों की त्यों याद है जैसी उस रात रश्मि ने बताई थी, ‘मैंने जाकर बहुत मिन्नतें कीं, गिड़गिड़ाई, उसके पैरों पड़ी कि अपने साथ रहने दे। उसने शर्त रखी कि साथ तभी रह सकती हूं जब धंधा करूं। मैं धम्म से गिर गई। होश में आने में तीन दिन लगे। मैं मर चुकी थी। मैं उसके लिए पैसे की मशीन बन चुकी थी, बस्स।’

 

 

मरद उसका दलाल बन चुका था। पहली बार जब वह हजार रुपये कमाकर लौटी तो उसने अपनी नसें काट लीं। खून बहता रहा। वह लाल रंग बहने से और उसका मरद लाल रंग पीकर, बेहोश रहे। सुबह उसे अस्पताल ले जाया गया। वह मर न सकी। वहीं उसे पता चला कि वह पेट से थी। उसने जीने की सोची, ‘मुझे अपनी परवाह नहीं थी। बच्चे के लिए गिड़गिड़ाती रही लेकिन कोई असर नहीं हुआ। खुद को इसी तरह मारने की कोशिश करती रही। जब भी किसी के पास लिवा जाता, लौटकर मैं अपने हाथ पर ब्लेड लगा लेती और उसे यूं ही सूखने देती। सूखकर खून जम जाता और मैं हर बार बच जाती।’

 

जाने कब हम बेड से सोफे पर आ गए थे। कुतूहल से मेरी नजरें पेट की तरफ चली गईं, उसने बताया, ‘लोगों से नुचती रही, लुटती रही। सबके पैरों पड़ती कि कोई और काम दिला दो। कुछ नहीं हुआ। अपना धंधा बढ़ता गया। बच्चे को जनने तक की फुरसत न मिली। पेट में ही दबकर मर गया। लेकिन सच साब, उस दिन मुझे कोई दुख नहीं हुआ। मुझे लगा मैं मुक्त हो गई हूं। फिर भी न जाने अब क्यों जी रही हूं। शायद उस नामरद का पेट पाल रही हूं।’

 

 

बाएं हाथ में उसने अपने प्यार का नाम गुदवा लिया था। उसी मेले में जहां वे दोनों तीन दिन तक लगातार मिले थे। जिस दिन बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ, उसने चाकू से वह नाम खुरच डाला। नाम मिटा दिया। उसे नाम की जरूरत नहीं थी, अब।

 

 

दिल बैठा जा रहा था। उस रात जितना होश में कभी नहीं रहा। रश्मि मुझसे भी गिड़गिड़ाई कि उस शैतान से उसे छुटकारा दिला दूं। कोई भी काम करने को तैयार थी। उसे सैकड़ों रास्ते बता सकता था, लेकिन सोचकर चुप लगा गया कि क्या उसे रास्ते पता नहीं होंगे? जिसने रोज मौत से दो-दो हाथ किए हों, उसे रास्तों की समझ तो होगी ही।

 

 

उसकी गिड़गिड़ाहट मुझे छीले जा रही थी। कहीं भीतर तीखे नाखून खुरच रहे थे। आईने में लहूलुहान चेहरा दिखा। आह। इंसान की शक्ल में शैतान। बेकारी से पैदा हुआ शैतान। शैतान के चेहरे की कल्पना चल रही थी। कितना भयानक। कितना विकृत होगा। उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बैठा रहा। टूटकर बिखरता रहा। आंखों से आंसू तक नहीं निकले। रोना भी कितना कम लग रहा था। क्या ऐसे भी जिया जा सकता है? क्या मौत इस तरह साथ छोड़ देती है कि हम चाहकर भी मर नहीं सकते? मैं तो यही सोचा करता था कि मौत का क्या है? जब कुछ नहीं कर सकूंगा या जिंदगी से ऊब जाऊंगा, मौत को गले लगा लूंगा।

 

 

जाने का समय हो गया था। दरवाजे के पास खड़ी थी रश्मि। उसने बताया कि बाहर बैठा वह आदमी उसका मरद है। हजार वोल्ट का करंट मेरे शरीर से गुजर गया। मैं गिरते-गिरते बचा। उसका चेहरा तो देखा था। कहां पहचान सका कि वह दरिंदा है या इंसान है? मुझे उससे घृणा तक नहीं हुई थी? कहीं से शैतान जैसा नहीं लगा? क्या मेरे अंदर भी वैसा ही शैतान...? आईने में देखते ही पूरा शरीर थरथर कांपने लगा।

 

 

रश्मि अपने मर्द के साथ चली गई और इधर मुझे सन्निपात सा हो गया। दोस्तों ने मुझे कमरे पर पहुंचाया। दो दिन तक तेज बुखार में तपता रहा। न जाने क्या-क्या बकता रहा। टप्पू भईया ने बताया बिटिया का, स्मिता का तो कभी रश्मि का नाम लेता रहा।

 

 

वह तीसरी सुबह थी। न जाने कहां से मुझमें ताकत आ गई। सुबह-सुबह मैंने खुद को रश्मि की झोपड़ी के सामने खड़ा पाया। अभी धूप उसकी झोपड़ी के छत पर अटकी हुई थी। नीचे छाया थी। धूप का टुकड़ा मेरे बालों को सहला रहा था। उससे बात करते हुए धूप मेरे कमर तक आ चुकी थी। शरीर फिर से गर्म होने लगा था। मैं धीरे-धीरे चलकर वापस आ गया।

 

उसे अपने साथ काम पर लगा लिया था। शाम को एक जन्मदिन पार्टी थी। पार्टी के बाद ऑफिस के दरवाजे पर आकर खड़ी हुई।

‘क्या हुआ?’

‘साब! उन लोगों ने भेजा है। आपके पास।’

‘नहीं रश्मि, तुम्हें किसी के पास जाने की जरूरत नहीं। तुम जैसे जीना चाहती हो, जीओ। जहां जाना चाहती हो, जाओ। अब से तुम हमारे कारोबार में पांच पर्सेंट की साझीदार हो। कल आकर कांट्रैक्ट पेपर पर साइन कर लेना। और हां, हमारे साथ काम करने वाली महिलाओं की जिम्मेदारी तुम्हें संभालनी है।’

 

 

‘साहब!’ वह सुबक रही थी। कुछ बोल न सकी।

वहीं दरवाजे पर बैठ गई। आंखों से लगातार आंसू बरस रहे थे। न जाने कितने बरसों के सूखे के बाद बारिश आई होगी। तीन घंटे बीत गए। मैं चेन्नई टूर की तैयारी कर रहा था। साथ जाने वालों का नाम फाइनल कर रहा था। रश्मि का नाम भी था।

‘साब! यहीं रहूंगी। कहां जाऊं?’

ऑफिस की चाबी रश्मि को देकर कमरे के लिए निकल गया। सड़क पर अंधेरा था। सामने से बाइक की रोशनी चेहरे और सीने पर पड़ी। सड़क किनारे होटल रत्ना के शीशे में जेब में फड़फड़ाते टिकट भर दिखे। याद कौंधी। घर जाने और बच्चों को लाने का टिकट निकाल लिया था। शीशे में चेहरा नहीं देख सका लेकिन मुस्कुराहट चिपके होने का एहसास भीतरी आंख को हो गया था।

 

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