Advertisement

लागी नाही छूटे रामा

रंगों को लेकर पेंटर दीदी बेहद संवेदनशील हैं। लाल रंग उन्हें नहीं भाता
लागी नाही छूटे रामा

 राजनीति का रंग है कि छूटता ही नहीं। चेहरे पर रंग की परत भले ही बदल रही है। फगुनाहट का सोंधापन बौरा रहे आम और महुआ के मोजर के साथ बढ़ रहा है और राजनीति की गर्माहट के साथ कदमताल कर रहा है। रंगों को लेकर पेंटर दीदी बेहद संवेदनशील हैं। लाल रंग उन्हें नहीं भाता। नीला और हरा उन्हें भाने लगा था। नीले रंग की दीवारों पर सफेद रंग की पट्टियां। हरे रंग के घास पर गेरुए रंग के फूल। अब तक तो रंगों का यह कॉम्बिनेशन दीदी को खूब भाता रहा है लेकिन अब वह क्या करें। इस बार राजनीति की गर्मी में रंग उतरने लगे हैं और नए रंग चेहरे पर लगाने की चुनौती दीदी के सामने तो है ही, उनके सामने खड़े भाई लोग भी अकबकाए-से हाथ मारने में व्यस्त हैं।


रवींद्रनाथ टैगोर की फूलों की होली की तैयारी तो है जरूर, लेकिन पूछ थोड़ी कम हो रही है इस बार। बंगाल में दीदी ममता बनर्जी अकेले अपने रंगों के साथ होली खेलने के मूड में हैं। सन 2011 में तो लाल आंधी से बचते-बचाते 'हाथ’ ने जो हरियाली रोपी थी, उसे दिल्ली के जमींदारों ने दीदी के अस्तबल भिजवा दिया था। इस दफा 'हाथ’ अधीर हो गया और मंद पड़ी लाल हवा के साथ अपनी बची-खुची हरियाली लहराने को आतुर हो गया। और देखिए न, 'हाथ’ में 'हंसिया-हथौड़ा’ और अलग से फगुनाहट को चुनौती में बदलने में जुटा 'केसरिया’।


राजनीति के रंग आसानी से छूटते हैं भला। अपने पुराने कॉमरेड अब्दुल रज्जाक मोल्ला को ही लीजिए। कांधे पर हल लिए अपने पुराने लाल खेतों में ही फसल काटने की कोशिश में हैं, लेकिन रंग वह दीदी के दिए अबीर से ही खेलेंगे। लाल बैकग्राउंड पर कॉमरेड का नेमप्लेट और घास-फूल के रंग। यह दिख रहा है। ठीक वैसे ही, जैसे अधीर चौधरी के 'हाथ’ में चरखा वाला तिरंगा अब 'हंसिया-हथौड़े’ के भी साथ है। पांच साल में रंगों के ऊपर रंग चढ़ाने और रंग उतारने के कई रोचक-रोमांचक प्रयोग किए गए। जहां लाल साइनबोर्ड था और हाथ का निशान था, उन जगहों में से अधिकांश में घास-फूल उगा दिए गए। लाल दीवारों पर नीली-सफेद धारियां नजर आने लगीं। बहुत पुरानी विरासत इमारत का रंग बदलने में दिक्कत आई तो उसे ही बदल डाला गया। अब दीदी लाल रंग की इमारत छोड़कर नीले-सफेद रंग की इमारत में शिफ्ट हो चुकी हैं, जो हुगली पार है।


इस बार की होली में कई की कोशिश है कि अपनी-अपनी खोई जमीन कुछ तो वापस पाई जाए। तभी अगली बार शायद मनपसंद रंग दिख सकेंगे। हालांकि रंग और गुलाल की उनकी बोरियां इस बार भी भरी दिख रही हैं, लेकिन सब जगह के लोग अपने चेहरे पर लगवाना पसंद करेंगे, इसमें संशय है। दीदी जबरन रंग लगाएंगी। होली पर जबरन रंग लगाने वालों पर कार्रवाई की चेतावनी जारी की गई है, सुरक्षा इंतजाम भी जबर्दस्त हैं। लेकिन तैनात किए लोग जब लौट जाएंगे तब रहना दीदी के साथ ही है।


यही कारण है कि हुगली पार हो, रूपनारायण पार, गांवों और छोटे कस्बों में दीदी ही जो रंग लगाना चाहें- लोग तैयार रहेंगे। उन अधिकांश लोगों के पास न तो लाल अबीर वाले पहुंच पा रहे हैं, न चरखा तिरंगा लोग और न केसरिया अबीर वाले। मजबूरी है, उन लोगों को दीदी के दिए रंगों के साथ ही होली खेलनी होगी। हुगली पार ही क्यों, रूपनारायण नदी और दीघा का समुद्र तट भी नीले-सफेद झाग उगल रहा है। तीस्ता नदी के आस पास और कांटातार वाले लोग लाल और हाथ वालों के साथ होली खेलने के मूड में हैं। बरसों पहले बना बाउंड्री वॉल है। कोशिश करके भी दीदी का अनुप्रवेश नहीं हो पा रहा है। ऐसे ही कुछ जगहों पर लाल वाले, हाथ वाले और केसरिया वाले कुछ कर पाने की जुगाड़ में हैं। 

 

दीदी के बंगाल को इस बार रंगों से सराबोर करने की कोशिश की जा रही है। राजनीति के रंग बदल रहे हैं। कोशिश तो यही है कि रंगों को पक्का बताया जाए। राजनीति के रंग चटख करने के चक्कर में चालीस साल से सभी ने फगुनाहट की आहट को बेमतलब कर दिया है। मुरझाए चेहरे वाले लोगों के चेहरों पर रंगरेज अपनी मर्जी के रंग मलेंगे। लागी नाही छूटे रामा, चाहे जिया जाए। क्या चेहरे खिलेंगे?

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad