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' क्योंकि मैं चांदी का चम्मच मुंह में लिए पैदा नहीं हुआ था '

कीड़े-मकौड़ों की तस्वीरें खींचने का उसे ऐसा जुनून था कि वह इसके लिए घरवालों से चोरी जंगलों में मारा-मारा फिरने लगा। हर मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया की तरह उसके पिता का सपना था कि वह पढ़ाई कर एक अदद सी सरकारी नौकरी पा ले या घर की खेती संभाले लेकिन सपनों के पंख उसे जंगलों में जानवरों, पेड़ों, पानी और कीड़ों की दुनिया में ले जाते। जो चांदी का चम्मच मुंह में लिए पैदा नहीं होते उनका संघर्ष कई गुना होता है, शायद इसीलिए उसने जानवरों और जंगलों की तस्वीरों को ही ओढ़ना, पढ़ना, खाना और जीना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि बिना फोटोग्राफी की कोई तालीम लिए इस 25 वर्षीय युवा वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर सतपाल सिंह की गिनती दुनिया के बेहतरीन वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफरों में होने लगी। इस वर्ष का नेचर बेस्ट फोटोग्राफर एशिया अवॉर्ड सतपाल सिंह की एक तस्वीर को मिला है। इसी महीने 9 तारीख को इन्हें अमेरिका में सम्मानित किया जाएगा। (वह तस्वीर जिसे अवॉर्ड मिला है।)
' क्योंकि मैं चांदी का चम्मच मुंह में लिए पैदा नहीं हुआ था '

सतपाल सिंह लखीमपुरखीरी के मध्यम वर्गीय साधारण किसान के बेटे हैं। शुरूआती दिनों में इनकी फोटोग्राफी की जानकारी का आलम यह था कि इतना तक नहीं जानते थे कि कैमरा में अलग-अलग प्रकार के लैंस लगाए जाते हैं। वह कहते हैं ‘मुझे कोई सीखाने वाला नहीं था, मैं हर दफा गलती करता, दस बार, बीस बार पचास बार लेकिन सीखना नहीं छोड़ता और जब तक सही नहीं सीख जाता उसे लगातार करता रहता।’ यही नहीं सतपाल के सीखने की ललक यहां तक थी कि इन्होंने सभी दोस्त – रिश्तेदार छोड़ दिए। हर जगह जाना-आना छोड़ दिया। चौबीस घंटे जानवरों से जुड़ी तस्वीरों की जानकारी जुटाने में लगा दिए। इंटरनेट की मदद से फोटोग्राफरों के कई समूहों से जुड़ गए।  

 

गांव-देहात की जिंदगी से वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनने की सतपाल कहानी रोचक है। वह बताते हैं ’मैं ग्याहरवीं में पढ़ता था, मेरी मां मुझे बहुत प्यार करती हैं, वह मेरी मां कम दोस्त ज्यादा हैं। मेरी जरूरतों का ख्याल रखतीं, मेरी मुश्किलें सुनती, उसे हल करतीं। जबकि वह बिल्कुल पढ़ी-लिखी नहीं हैं बावजूद इसके मैंने उनसे कहा कि मुझे कैमरा खरीदना है। उन्होंने पिता से चोरी मुझे कैमरा के लिए पैसे दिए।’ सतपाल ने कैमरा तो ले लिया लेकिन अब फोटो कहां खींचें, यह मुसीबत थी। वह कैमरा को तौलिये में लपेटकर, खाली खाद वाले थैले में लेकर पिता और गांववालों से चोरी नजरें बचाते हुए दूर खेतों में चले जाते और परिंदों की तस्वीरें खींचते। कोई गांववासी आ जाता तो फौरन कैमरा को थैले में रख लेते। इसकी वजह सतपाल बताते हैं ’ गांव में कोई सोच भी नहीं सकता कि कीड़े-मकौड़ों की कैमरा से तस्वीरें भी खींची जाती हैं, गांव में तो सभी सोचते हैं कि कैमरा से सिर्फ शादी की तस्वीरें ही खींचतीं हैं। अगर वे मुझे कीड़ों की तस्वीरें खींचते हुए देख लेते तो गांव में मेरी हंसी उड़ाते।‘

 

एक रोज तो सतपाल के पिता को पता लगना ही था। जिस रोज पता लगा तो उन्हें पिता से काफी डांट पड़ी। लेकिन सतपाल ने वादा किया कि वह फोटोग्राफी सिर्फ फुरसत में ही किया करेंगे। सतपाल पढ़ाई करते, मां से बातें करते, थोड़े से समय में फोटो खींचते। लेकिन उनकी मेहनत और लगन को उस समय पहचान मिली जब वर्ष 2011 में उत्तराखंड सरकार ने परिंदों की राष्ट्रीय तस्वीर प्रतियोगिता आयोजित की। इसमें सतपाल की तस्वीर तीसरे नंबर पर रही। बस यहीं से उनके पिता ने भी सतपाल के सपनों को साकार करने की ठान ली। फिर परिवार से ऐसा सहयोग मिला कि सतपाल दिल्ली आ गए। पिता ने कहा तुम सिर्फ तस्वीरें खींचो और सीखो। पिता ने बेटे के इस मंहगे शौक को पूरा करने के लिए सतपाल का साथ दिया। वह बताते हैं कि उन्होंने पहले काम किया, सीखा फिर धीरे-धीरे खुद अपनी कैमरा किट बनाई। सतपाल को आज 35 राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रशंसकों की लंबी कतार है। अपनी सफलता के पीछे वह बोलते हैं ‘मैं इतना शरारती था कि दुनिया मेरी मां के पास मेरी शिकायत करती लेकिन मां हमेशा बोलती कि शैतानी करता है तो कुछ बेहतर भी करेगा।’ सतपाल अपनी पत्नी को भी इसका श्रेय देते हैं। कहते हैं मैं महीनों जंगलों में रहता हूं लेकिन उसने कभी शिकायत नहीं की।     

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