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भारत रंग महोत्सव में सियासत का भी रंग

दिल्ली में चल रहे भारत रंग महोत्सव की शुरुआत इस बार चुनावी सरगर्मियों के बीच हुई। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित रंगमंच के इस सबसे बड़े उत्सव को ठंड और कोहरे के प्रकोप से बचाने के लिए इस बार एक महीने आगे सरकाया गया था। लेकिन वक्त की तब्दीली ने इसे दिल्ली चुनाव के ऐन बीच ला पटका।
भारत रंग महोत्सव में सियासत का भी रंग

 ऐसे में उद्घाटन समारोह के दौरान जब विद्यालय के निदेशक वामन केन्द्रे ने विद्यालय को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने और थिएटर ओलंपियाड के आयोजन जैसे प्रस्ताव रखे तो मंच पर मौजूद संस्कृति मंत्री महेश शर्मा मुस्कराते रहे। वह तब भी मुस्कराते रहे जब समारोह में खास अतिथि के तौर पर मौजूद ओम पुरी ने वामन केन्द्रे को सुझाव दिया कि मांगने का सही तरीका यह है कि कहा जाए, ‘दूरदर्शन को दो हजार करोड़ दिए जाते हैं, हमें भी देखभाल के कुछ दे दो।’ बाद में अपना वक्तव्य देते हुए संस्कृति मंत्री ने कहा, ‘चुनावी आचार संहिता में वह ‘मफलरवालों’ के होते कोई घोषणा तो नहीं करेंगे, लेकिन विद्यालय को उनका ‘पूर्ण सहयोग’ जरूर मिलता रहेगा।’

इतने बड़े महोत्सव में मूल हिंदी भाषा के नाटकों की कमी हमेशा खलती है। ऐसी शिकायतें स्थायी रूप से रही हैं, जिनमें से एक यह है कि वह साहित्य के रूपांतरण पर कुछ ज्यादा ही आश्रित है। अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी ‘जिंदगी और जोंक’ का ऐसा ही उदाहरण इस बार भी था। कवि राजेश जोशी द्वारा किए नाट्य रूपांतर पर आधारित इस प्रस्तुति का निर्देशन अपने थिएटर ग्रुप ‘विदूषक’ के लिए बंसी कौल ने किया था। लेकिन वहीं थोड़ी पुरानी लेकिन एक प्रयोगपूर्ण हिंदी प्रस्तुति भानु भारती निर्देशित ‘तमाशा न हुआ’ भी महोत्सव में शामिल थी। प्रस्तुति में कुछ रंगकर्मी नाटक की तैयारी करते-करते एक बहस में उलझ जाते हैं और पूरी प्रस्तुति इसी बहस की वैचारिक गर्मागर्मी में ही व्यतीत और समाप्त होती है।   

इस शिकायत के अलावा एक और बात पर चर्चा होती है और वह है सियासी रंग। भारतीय रंग महोत्सव भी सियासी दांवपेच से दूर नहीं रह पाता। करीब दो साल हुए, जब भारंगम पर देश के राजनीतिक-कूटनीतिक संबंधों का भी असर पड़ा था। सीमा पर पाकिस्तान की ओर से हुई गोलीबारी की प्रतिक्रिया में भारंगम में वहां की एक नाट्य प्रस्तुति को रोक दिया गया था, जबकि यह पहले ही चुन ली गई थी। तब से पाकिस्तान की कोई प्रस्तुति भारंगम में शामिल नहीं की गई है। पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान से कुछ प्रस्तुतियां भेजी तो गई थीं पर चयन मंडल को वे पसंद नहीं आईं।

भारत रंग महोत्सव में हर साल विभिन्न भाषाओं के करीब सौ नाटकों का मंचन किया जाता है। इस सत्रहवें आयोजन में कुछ नए प्रयोग भी किए गए। नई शुरू की गई लिविंग लीजेंड शृंखला में ओम पुरी, अनुपम खेर और रघुवीर यादव जैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक रहे अभिनेताओं के अलावा अन्य कला क्षेत्रों से जुड़े बिरजू महाराज, कृष्णा सोबती जैसी हस्तियों के साथ विशेष सत्र आयोजित किए गए। रंगमंच में समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों की चर्चा की गई और शंभु मित्रा पर एक सेमिनार का भी आयोजन हुआ। ओम पुरी ने कहा कि वह चालीस साल बाद विद्यालय में आए हैं और रंगमंच के जादू से उबर पाना मुश्किल है। अनुपम खेर ने अपनी आत्मकथात्मक एकल प्रस्तुति ‘कुछ भी हो सकता है’ के अगले दिन थिएटर से जुड़े अपने अनुभवों को याद किया। उन्होंने कहा,  ‘मुझे नहीं पता था कि थिएटर और सिनेमा पर किताबें भी होती हैं। जब मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आया तो मैंने जाना कि अभिनय कैसे सीखा जा सकता है।’ इस मौके पर उन्होंने अपने शिक्षकों को भी याद किया और श्रोताओं से संवाद के दौरान बताया कि कैसे उन्होंने अपनी असफलताओं से भी लगातार सीखना जारी रखा।

देश-विदेश के कई क्लासिक नाटकों के मंचन के साथ ही कई प्रयोगपूर्ण प्रस्तुतियां भी महोत्सव का हिस्सा रहीं। महाकवि भास के नाटक ‘कर्णभारम’ की काफी परिष्कृत प्रस्तुति मध्यप्रदेश के युवा रंगकर्मी नीरज कुंडेर के निर्देशन में हुई। प्रसिद्ध मलयालम नाट्य निर्देशक के.एन. पणिक्कर के शिष्य रहे नीरज ने इसे बघेली भाषा में प्रस्तुत किया। उन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत की कई लोक नाट्य और शास्त्रीय शैलियों को शामिल करते हुए यह प्रस्तुति तैयार की है। कर्ण के जीवन पर आधारित इस नाटक की एक लोकभाषा में यह अच्छी प्रस्तुति थी।  इसी क्रम में अल्बेयर कामू के नाटक ‘कालिगुला’ का मंचन कोलकाता के प्राच्य ग्रुप ने विप्लव बंद्योपाध्याय के निर्देशन में किया। अच्छाई को बुराई में और खुशी को दुख में पलट देने की मंशा लिए हुए राजा कालिगुला की मुख्य भूमिका में अभिनेता गौतम हाल्दार मंच पर थे। गौतम बांग्ला के प्रसिद्ध रंग अभिनेता हैं और इस प्रस्तुति में उन्होंने मृत्यु को पवित्र बताने वाले एक सनकी और क्रूर किरदार की उत्कृष्ट अभिव्यक्तियां दी हैं। इसी क्रम में जॉन स्टीनबैक के क्लासिक नाटक ‘ऑफ माइस एंड मैन’ (जो मूलतः उपन्यास था और जिस पर इसी नाम से फिल्म भी बन चुकी है) का मंचन बरेली के रंगविनायक थिएटर ग्रुप ने हेमा सिंह के निर्देशन में किया। एक कठिन यथार्थ में अपने मानवीय संबंध की हिफाजत करते दो पात्रों की यह कहानी अंत में दुखांत पर पहुंचती है। मंदबुद्धि लेने को कोमल चीजों को सहलाना अच्छा लगता है। उसकी इस कोशिश में चूहे और खरगोश मर जाते हैं। उसे अपने मित्र जॉर्ज पर अटूट भरोसा है। जॉर्ज भी उसकी हिफाजत के लिए क्या कुछ नहीं करता। अपनी खुशियों को ताक पर रखता है, दूसरों से दुश्मनी मोल लेता है पर आखिर में उसे अपने उसी अजीज की हत्या कर देनी पड़ती है। हेमा सिंह ने नाटक के पश्चिमी परिवेश के लिए एक यथार्थवादी सेट तैयार करवाया था। यह निम्न वर्ग के कई पात्रों के रहने की एक जगह है, जहां बदबू मारता एक कुत्ता भी रहता है। इसके अलावा तीजन बाई की पंडवानी की एक प्रस्तुति भी महोत्सव में शामिल थी।

महोत्सव में नाटक मंचन के अगले दिन सुबह ‘निर्देशक से मिलिए’ कार्यक्रम का आयोजन भी किया जाता है। यह खुला सत्र होता है जिसमें दर्शक-निर्देशक से सवाल पूछ सकते हैं और चर्चा कर सकते हैं। महोत्सव में भाग लेने आए रंगमंच के बहुत से छात्र इस कार्यक्रम में बड़ी तादाद में शिरकत करते देखे जा सकते थे। कार्यक्रम में फ्रांस से आई प्रस्तुति ‘ले चैन्त्स दे इ उमई’ के दोनों निर्देशकों मर्सिया और कार्ल से सवाल किया गया कि पश्चिमी देशों की प्रस्तुतियां इतनी प्रभावी होती हैं तो क्या वहां कहानी सुनाने का अब कोई महत्त्व नहीं रहा। इस पर उन्होंने जवाब दिया कि प्रचलित नैरेटिव बात को कहने के तरीके को सीमित कर देता है, जबकि अमूर्तता में आप बात को कहने के कई तरीके ईजाद कर सकते हैं। फ्रांस की इस प्रस्तुति में भाषा का बहुत सीमित प्रयोग किया गया है। एक स्थिति में मंच पर मौजूद पात्र (मर्सिया) तुलसीदास की पंक्तियों ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भजनम हरण भव भय दारुणं’ को ठेठ अपने ढंग से गाती हैं। उनसे जब पूछा गया कि उन्होंने इन पंक्तियों का चयन किस आधार पर किया तो उन्होंने कहा कि वह अलग-अलग भाषाओं के प्राचीन छंदों को अपनी प्रस्तुति में शामिल करना चाहती थीं। उन्हें इन पंक्तियों के अर्थ का नहीं पता था यह अलग बात है।  

महोत्सव में प्रस्तुतियां अमूमन दोपहर दो बजे शुरू होती हैं और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय परिसर सहित आसपास के सात प्रेक्षागृहों में इनके प्रदर्शन किए जाते हैं। दिन की अंतिम प्रस्तुति का समय इस बार आठ बजे था। निदेशक वामन केन्द्रे ने उत्सव का माहौल बनाए रखने के कुछ और भी प्रबंध इस बार किए थे। बाजीगरी, कव्वाली, पारंपरिक वादन वगैरह के प्रदर्शन यहां से वहां गुजरते लोगों को सहसा रोक लेते हैं। खाने-पीने के लिए हर बार बनाया जाने वाला फूड कोर्ट इस बार एक विशेष आयोजन ‘थिएटर बाजार’ के स्टालों से घिरा हुआ है। इन स्टालों में थिएटर के कास्ट्यूम, वाद्य, प्रकाश एवं संगीत योजना के उपकरण आदि उपलब्ध हैं। बिहार की लिट्टी और किताबों के स्टाल तो हैं ही।

भारतीय रंग महोत्सव 18 फरवरी तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मंडी हाउस के साथ-साथ आसपास के अन्य सभागृहों में है। 

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