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24 April 2017

नजरिया: अच्छा हुआ किसान भी हेडलाइंस मैनेज करना सीख गए

दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के सूखा पीड़ित किसानों का 40 दिनों से चला आ रहा आंदोलन रविवार शाम समाप्त हो गया। दिल्ली की दहलीज पर बैठे इन किसानों ने अपनी आवाज सत्ता तक पहुंचाने के लिए क्या–क्या नहीं किया! सनसनी खोजते राष्ट्रीय मीडिया की नजरों में आने के लिए कभी सड़क पर गिराकर दाल-भात खाया, तो कभी प्रतीकात्मक ही सही खुदकुशी कर चुके किसानों की खोपड़ी लेकर प्रदर्शन करते रहे। कभी अपने हाथ-पैर काटने पर आमादा हो गए तो कभी मूत्र पीने की बेबसी जाहिर करते दिखे। वैसे, जहर पीने से बेहतर से गूंगी-बहरी सरकारों की आंख खोलने के लिए मूत्र भी पी लेना। 

देश में किसानों की समस्याएं नई नहीं हैं। आजादी के पहले चंपारण में नील किसानों का आंदोलन गांधी को महात्मा बनाने के रास्ते पर ले गया। आजादी के बाद भी देश के सभी कोनों से किसानों की दुर्दशा सुधारने की आवाजें उठती रहीं। 80 के दशक में किसान आन्दोलन और एकता ने राष्ट्रीय राजनीति को अपने वजूद का अहसास करा दिया था, मगर आगे चलकर धर्म-जात की राजनीति ने किसान राजनीति का वजूद हड़प लिया। राजनीति में खेती और किसानों के मुद्दे हाशिए पर जाने लगे तो फिर मीडिया भी इनकी फिक्र क्यों करता। किसान की खुदकुशी भी अब 'न्यूज' कहां रही। इसमें भी नया क्या है!

दूसरी तरफ घाटे का सौदा बनती खेती के कारण कर्ज के जाल में फंसे किसानों के लिए मांग मनवाना तो दूर अपनी बात सत्ताधीशों तक पहुंचाना भी मुश्किल हो गया। किसानों के मुद्दे पर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन करने का मेरा खुद का अनुभव भी यही है। अधिकारियों के आगे ज्ञापन और धरने-प्रदर्शन का कुछ भी हासिल होना धीरे-धीरे बंद हो गया है। हद से हद किसानों की आवाज जिला स्तर के अखबारों में भीतर के पन्नों में सिमटकर रह जाती है। अपने इस अनुभव को मैं जंतर-मंतर पर चले तमिलनाडु के किसानों के विरोध-प्रदर्शन से जोड़कर देखता हूं तो प्रचार के इन हथकंड़ों को उचित पाता हूं।

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लंबे समय तक जमीन से जुड़े नेताओं ने प्रचार की अनदेखी करते हुए काम को तवज्जो दी है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की कामयाबी इस पुरानी सोच को अप्रासंगिक ठहराती है। इसलिए किसान को भी मान ही लेना चाहिए कि यह प्रचार का जमाना है। खबर खुद नहींं बनती, बड़ी तकरीब लगानी पड़ती है। अच्छा हुआ तमिलनाडु के ये किसान देश भर के किसानाेेंं काेे नया सबक सीखा गए। सीखना ताेे किसान काेे पड़ेगा। मीडिया मैनेजमेंट ही नहीं, बिजनेस मैनेजमेंट भी। मार्केटिंग भी! क्योंकि खुदकुशी करना न्यूज नहीं है।

दिल्ली की तपती गर्मी में नंगे बदन प्रदर्शन कर सत्ता को उसकी बेशर्मी का अहसास कराने वाले ये आंदोलकारी किसानों के मुद्देे को देश की नजरों में लाने में बहुत कामयाब रहे। मध्य प्रदेश में हमारे किसान संगठन ने भी कई आन्दोलन किए हैं। मेरा तजुर्बा भी यही है कि जब भी हमने लीक से हटकर कुछ किया, तभी बात सुनी गई। जबकि चुपचाप हुए धरने-प्रदर्शन हमेशा अनसुने ही रहे। 

 

 

 

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TAGS: farmers, tamilnadu drought, jantar mantar, agriculture crisis, media
OUTLOOK 24 April, 2017
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