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18 January 2016

मुसलमानों पर अरबों खर्च लेकिन हालात बद से बद्तर

गूगल

सन 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट -1992 के तहत अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना हुई। सन 2005 में अल्पसंख्यकों के हालात जानने के लिए सच्चर कमेटी बनी। सन 2006 में अल्पसंख्यक मंत्रालय बना। ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना से लेकर 12वीं पंचवर्षीय योजना के चौथे वर्ष तक अल्पसंख्यकों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर अरबों-खरबों रुपये खर्चे जा चुके हैं। मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक विकास के लिए देश के 196 जिलों बाद में 710 ब्लॉक्स में बहु-क्षेत्रिय विकास कार्यक्रम (एमएसडीपी) और 2006 में 15 सूत्रीय कार्यक्रम शुरू हुआ लेकिन नतीजे शून्य रहे। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष कमाल फारूखी कहते हैं, ‘ यूपीए के समय मुसलमानों की शिक्षा पर उस वक्त काम शुरू हुआ जब उसकी हुकूमत जाने वाली थी। मैं उदाहरण देना चाहूंगा कि जैसे मुसलमानों में रिवाज है कि घर की औरतों के लिए शौचालय घर पर होता है। अब जिस घर में शौचालय है उस घर को बीपीएल के तहत नहीं माना जाता। इसलिए मुसलमानों को बीपीएल के तहत भी फायदे नहीं मिल पाते हैं। इस तरह के कई बहाने हैं मुसलमानों को फायदा न देने के।‘

 

अल्पसंख्यक मंत्रालय के सालाना आंकड़ों पर गौर करें तो बजट तो बढ़ा लेकिन या तो वह खर्च नहीं हुआ या दूसरे मद में खर्च कर दिया गया। वर्ष 2007-08 में संबंधित मंत्रालय के 500 करोड़ रुपये के बजट में से महज 39.3 फीसदी खर्च हुआ। वर्ष 2008-09 में 1,000 करोड़ रुपये में से 61.9 फीसदी खर्च हुआ। बाकी के वर्षों में आवंटित बजट के भी ऐसे ही हालात हैं। बजट मूल्यांकन करने वाली सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटिबिल्टी संस्था के जावेद अहमद बताते हैं ‘मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक तौर पर अल्पसंख्यक नहीं माना गया जैसे दूसरे अल्पसंख्यकों को माना गया,  मुसलमानों को धर्म के आधार पर अलग समुदाय के तौर पर देखा गया जबकि दूसरे अल्पसंख्यकों के मुकाबले मुसलमान ज्यादा पिछड़ा हुआ है।‘ एमएसडीपी का नतीजा शून्य रहा। कारण था कि कार्यक्रम जरूरत पर आधारित नहीं था। कमाल फारुखी कहते हैं, दावा है कि किसी मुसलमान को यह तक पता नहीं होगा कि उसका ब्लॉक अल्पसंख्यक ब्लॉक में है।

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दूरदराज के गांवों की बात छोड़ें राजधानी दिल्ली तक में मुसलमानों के हालात अच्छे नहीं हैं। अल्पसंख्यक बहुल विधानसभाओं में सीवर लाइन तक नहीं है। सीलमपुर के डॉ.फहीम बेग कहते हैं, आपने खुला ड्रेनेज कम जगहों पर देखा होगा लेकिन सीलमपुर में है। इससे यहां चमड़ी और सांस की गंभीर बीमारियां हैं। राज्यसभा के पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब बताते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस ने 15 साल राज किया लेकिन अल्पसंख्यकों के नाम पर 70 फीसदी बजट सिखों पर खर्च किया गया, महज 7 फीसदी मुसलमानों पर खर्च हुआ। सच्चर कमेटी मुसलमानों के लिए बनी थी जिसकी सिफारिशें सभी अल्पसंख्यकों के लिए लागू हुईं। इसमें 80 फीसदी फायदा संपन्न अल्पसंख्यक ले गए। मुसलमानों के हिस्से बदनामी आई और उनका हुआ भी कुछ नहीं।‘ तमाम आरोपों पर यूपीए सरकार में केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री रहे के. रहमान का कहना है कि मुसलमानों में शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक विकास में स्थानीय समुदाय और राज्य सरकारों से सहयोग नहीं मिला। जैसे प्री-प्राइमरी स्कॉलरशिप योजना गुजरात सरकार ने लागू करने से मना कर दिया। बाद में यह मामला अदालत में भी गया। पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के नेता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘ देश में आजादी के बाद अल्पसंक्चयकों के नाम पर लफ्फाजी हुई है। 15 सूत्रीय कार्यक्रम में से किसी कांग्रेसी को एक भी सूत्र याद नहीं होगा। सच्चर कमेटी, अल्पसंख्यक मंत्रालय, आयोग सब कांग्रेस की देन है, लेकिन किसी अल्पसंख्यक का भला नहीं हुआ।‘

 

अन्य राज्यों में हालात

 

 राज्यों की बात करें तो उत्तर-पूर्व के राज्यों में मुसलमानों के हालात बहुत खराब हैं। असम में पिछले 15 वर्षों में अल्पसंख्यकों की राजनीतिक हैसियत भले ही बढ़ी है लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति में खास बदलाव दिखाई नहीं पड़ रहा। जबकि राज्य की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों का है। स्थिति यह है कि राज्य सरकार केंद्र से अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आने वाली राशि भी इस्तेमाल नहीं कर पाती है। सबसे बुरी स्थिति ब्रह्मपुत्र के चर इलाके की है। जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं है। चाहे मुख्यमंत्री तरुण गोगोई हों या अपने को अल्पसंख्यकों का एकमात्र नेता मानने वाले ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता बदरुद्दीन अजमल किसी के जरिये अल्पसंक्चयकों का भला नहीं हुआ। तरुण गोगोई पिछले 15 वर्षों से लगातार मुक्चयमंत्री हैं। उनके पद पर बने रहने में अल्पसंख्यक मतदादाताओं की बड़ी भूमिका रही है। बावजूद इसके यह सच है कि राज्य सरकार अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आई राशि को खर्च नहीं कर पाई या खर्च करना नहीं चाहती है। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत अल्पसंख्यक के लिए सर्वांगीण विकास कार्यक्रम के तहत असम को 703 करोड़ रुपए आवंटित किए लेकिन राज्य सरकार इस पूरी राशि को न खर्च कर सकी और न ही केंद्र को उपयोगिता प्रमाण-पत्र भेज सकी है। उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व की यूपीए सरकार थी। 12वीं योजना के तहत राज्य को मिले 525 करोड़ में से अधिकांश राशि सरकारी खाते में पड़ी हुई है।  पूर्व प्रधानमंत्र डॉ.मनमोहन सिंह के उस समय सलाहकार रहे टीकेए नायर ने असम के दौरे के समय अल्पसंख्यक छात्रों की मुश्किलों पर चिंता जाहीर की थी।  राज्य सरकार अल्पसंख्यक छात्र-छात्रओं को दी जाने वाली छात्रवृति तक समय पर नहीं दे पाई थी।

 

राज्य के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शुकुर अली अहमद भी मानते हैं कि केंद्रीय मदद राशि का पूरी तरह उपयोग नहीं हो पाया है। इसके लिए वे योजना तैयार कर रहे हैं। मौलाना बदरुद्दीन अजमल के इस आरोप में दम है कि  पिछले 15 वर्षों में अल्पसंख्यक लोगों के विकास के नाम पर विभिन्न योजनाओं के तहत करोड़ों रुपए केंद्र से लाए गए लेकिन कितना पैसा राज्य सरकार ने खर्च किया वह केवल सरकारी फाइलों में मौजूद है। जमीनी स्तर पर अल्पसंख्यकों का विकास देखने को नहीं मिलता। राज्य में 118 अल्पसंख्यक ब्लॉक और अल्पसंख्यक बहुल शहर हैं लेकिन इनका दौरा करने पर ऐसा लगता नहीं कि गोगोई राज के 15 वर्षों में अल्पसंख्यक लोगों की बुनियादी समस्याएं खत्म हुई हों। मुस्लिम पॉलिटिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. टी.ए. रहमानी का कहना है कि असम में 35 फीसदी, त्रिपुरा में 10 फीसदी और मणिपुर में 8 फीसदी मुसलमानों की सुध तक लेने वाला कोई नहीं।  

 

उत्तर प्रदेश में सरकार के विशेष 30 विभागों की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के बजट का 20 प्रतिशत हिस्सा अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आवंटित किया जाता है। अनुदानित मदरसों में मिड डे मील, कक्षा एक से पांच के छात्र, छात्राओं पका भोजन, नि:शुल्क पाठ्य पुस्तकें और वर्दी भी उपलब्ध कराई जाती है। बिहार की बात करें तो वह समावेशी विकास का बेहतरीन मॉडल है। वर्ष 2005 के चुनावों में नीतीश कुमार एनडीए में थे। उनका गठबंधन भाजपा से था। अल्पसंख्यकों के वोट का बड़ा हिस्सा उस चुनाव में राजद और कांग्रेस के खाते में गया था लेकिन चुनाव जीतने के बाद नीतीश ने 8064 कब्रिस्तानों की घेराबंदी का फैसला और भागलपुर दंगा पीडि़तों को माहवार पेंशन देने का फैसला लिया। उसी दौर में अल्पसंख्यक बच्चों के लिए भी तालिमी मरकज और हुनर जैसी योजनाएं शुरू हुईं। फिर 2010 में अनेक सीटों पर नीतीश कुमार के गठबंधन को अल्पसंख्यकों का वोट मिला।

 (साथ में गुवाहाटी से रविशंकर रवि, लखनऊ से अमितांशु पाठक, पटना से आउटलुक प्रतिनिधि)

 

 

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TAGS: मुसलमान, बजट, सच्चर कमेटी, अल्पसंख्यक, मोहम्मद अदीब, शहनवाज हुसैन, पंचवर्षीय योजना, 15 सूत्रीय कार्यक्रम
OUTLOOK 18 January, 2016
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