Advertisement
21 February 2015

इंद्रहार दर्रे की ट्रेकिंग का रोमांच

मनीषा भल्ला

इंद्रहार जाने के लिए यात्रा धर्मकोट से शुरू होती है। यह धर्मशाला से दस किलोमीटर दूर घने जंगल से घिरा शांत,  अकेला, छोटा सा कस्बा है। कहते हैं, ब्रिटिश समय में यहां अंग्रेज न्याय करते थे,  इसलिए इसे धर्मकोट कहा जाता है। इन दिनों इसे मिनी इस्राइल कहते हैं। शाम को धर्मकोट पहुंचने पर हम ट्रेक एन डाइन रेस्तरां गए। लजीज इस्राइली, रूसी और थाई व्यंजनों के लिए यह खासा मशहूर है। कस्बे की दीवारों पर रूसी और हिब्रू भाषा में विज्ञापन चस्पा हैं, जो संकते करते हैं कि यहां रूसी और इस्राइली बड़ी तादाद में आते हैं। धर्मकोट की निपट शांति वाली संकरी गलियां शाम ढलते गुलजार होने लगती हैं। टिमटिमाती रोशनी से नहाए रेस्तरां में बज रहीं मधुर धुनें माहौल को मदहोश कर रही हैं। गुलाबी ठंड में यहां दुनिया के ज्यादातर इलाकों की चाय पी जा सकती है। दम मारने के शौकीन हैं तो थोड़ा  जुगाड़ करना होगा। 

अगले दिन सुबह दस बजे हमने धर्मकोट से दस किलो मीटर दूर त्रिउंड के लिए पैदल यात्रा शुरू की। फासला सुनने में कम है लेकिन दम फुलाने वाली चढ़ाई में यह बहुत होता है। इंद्रहार अकेले जाना खतरे से खाली नहीं। पहाड़ जीतने का दम भरने वाले कई ट्रेकर यहां जान गंवा बैठे हैं। इसलिए हमने धर्मकोट से इंस्ट्रक्टर सुमनकांत, संदीप ठाकुर, और साहिल खत्री को साथ लिया। संदीप ठाकुर कहते हैं, ‘पहाड़ फतह करने का पहला नियम है कि पहाड़ों की इज्जत करनी होगी, जो इन्हें कम आंकते हैं,  वे ही मरते हैं।’  संकरी कच्ची पगडंडी के रास्ते में लंच के नाम पर हमने मैगी खाई। शाम छह बजे त्रिउंड पहुंचे। यह एक ऐतिहासिक जगह है जहां ब्रिटिश काल का एक रेस्ट हाउस है। त्रिउंड चोटी पर खुले घास के मैदान पर कई टेंट लगे हैं। कहीं कोई टोली चूल्हे पर कुछ पका रही है तो कहीं गिटार पर उंगलियां तैर रही हैं और कहीं ओल्ड मंक रम की खुली बोतल महक रही है। यह दुनिया हमारी दुनिया से अलग है। त्रिउंड तक आने वाले प्रकृति प्रेमी कम,  नशा और मस्ती प्रेमी ज्यादा हैं। मस्ती मार ज्यादातर लोग यहां से वापस चले जाते हैं लेकिन इंद्रहार जाने वाले असली प्रकृति प्रेमी इसे बेस कैंप की तरह लेते हैं। अगली सुबह नाश्ता कर हम स्नोलाइन के लिए निकले। त्रिउंड और स्नोलाइन के बीच दस किमी का जंगल है। स्नोलाइन पर आखिरी चाय की दुकान पर हमने चाय पी। यहां भी इक्का-दुक्का टेंट हैं। इसके बाद न पानी,न खाने को कुछ मयस्सर है। हम पूरी तरह प्रकृति और विराट हिमालय के हवाले हैं। अब हमें स्नोलाइन से 10 किमी दूर लाका के लिए रवाना होना है। यह चट्टाननुमा पत्थरों भरा रास्ता है। हमें किसी तरह शाम ढलने से पहले लाका पहुंचना है और वहां से लहशकेव। एक दफा बादलों की धुंध में घिरे तो रास्ता नहीं मिलेगा। लगता है ये पथरीले रास्ते हमारे इंस्ट्रक्टरों को पहचानते हैं इसलिए कोई पगडंडी न होने के बावजूद उनके कदम अपनी दिशा जानते हैं। हम लाका पहुंच चुके हैं और लहशकेव की चढ़ाई चढऩे के लिए तैयार हैं। लहशकेव इंद्रहार चोटी के ठीक बीच में है। हम लाका में खड़ी चढ़ाई और बड़े चट्टानी पत्थरों वाले इंद्रहार पर्वत के पांव में खड़े हैं। असली परीक्षा अब है। इस पहाड़ पर न तो रास्ता है, न पकडऩे की जगह, न पांव रखने की जगह। हम अपने आप नहीं चल पा रहे जबकि संदीप और साहिल की पीठ पर दो दिन का राशन लदा है। फिर भी उनके कदम हमसे तेज हैं। लहशकेव कुछ खड़ी चट्टानों के ऊपर गिरकर अटकी एक बड़ी चट्टान से बनी गुफा है। आमतौर पर यहां भेड़-बकरियों वाले रुकते हैं या इंद्रहार जाने वाले ट्रेकर। लटक-लटक कर चढऩे से डर इतना तारी है कि लगा इंद्रहार आने का फैसला कहीं गलत तो नहीं लिया। 

जैसे ही गुफा आई अपने को छूकर देखा कि बच गए। अंदर घुसे, बिस्तर लगाया। संदीप और साहिल ने हमारे लिए मैगी बनाई। पहाड़ों पर रात जल्दी होती है। वैसे भी गुफा के अंदर बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं। बाहर निकलने पर नीचे देखो तो दहशत होती। उस रात हमने स्टोव पर दाल-भात बनाकर  खाया। रात में गुफा का पत्थर ठंडा होने लगा तो आग सुलगाई। अलसुबह हम इंद्रहार के लिए निकले। हर दिन ऐसा है मानो बस आज का दिन किसी तरह निकल जाए। कुछ भी हो दहशत और रोमांच का मिलन खूबसूरत होता है। अब यह ऐसा रास्ता है जहां पांव की अंगुलियां रखने की जगह नहीं है। साहिल ने हाल ही में यहां कुछ ट्रेक्र्स के साथ हुए हादसे बताए तो पांव रुक गए। इंद्रहार से 700 मीटर पीछे नुकीले आकार के हो चुके पहाड़ पर सपाट चट्टान है जिसपर चढऩे की कोई जगह नहीं और नीचे हजारों फुट गहरी खाई है। यही इंस्ट्रक्टर की काबिलियत है कि वह आपको उसे कैसे पार करवाए। संदीप ठाकुर ने हाथ खींचा तो वह पार हो गया। डर और थकान तब दूर हो जाती है जब धौलाधार पर इंद्रहार की चोटी पर आप होते हैं। एक ओर धर्मशाला तो दूसरी ओर चंबा-भरमौर है।

Advertisement

कुछ दिन पहले इंद्रहार आने को गलती मानने वाले यहां आकर कुदरत के अहसानमंद हो जाते हैं। चोटी पर शिव का मंदिर है। आने वाले सभी यहां नतमस्तक होते हैं। सामने मणि महेश, किन्नर कैलाश और पीर पंजाल हैं और आप धौलाधार की चोटी पर । उतरते हुए ज्यादा दिक्कत तो नहीं, हां टांगे जाम हो गई। संदीप ठाकुर कहते हैं, यह पहाड़ों का उपहार है, जो वे जाते वक्त देते हैं।        

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: इस्राइली, धर्मशाला, धर्मकोट, लाका, इंद्रहार, त्रिउंड, स्नोलाइन, ह‌िमालय
OUTLOOK 21 February, 2015
Advertisement