Advertisement
29 July 2023

इंटरव्यू । गुमान सिंह: “यह तबाही तो हमने मोल ली है”

हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह अरसे से हिमाचल प्रदेश में पहाड़, नदी, जंगल, पर्यावरण बचाने के संघर्ष में जुटे हुए हैं। हालिया तबाही पर उनसे अभिषेक श्रीवास्तव ने विस्तार से बातचीत की। प्रमुख अंश:

हिमाचल में बाढ़ से तबाही की बात आम तौर पर देखने-सुनने को नहीं मिलती। क्या हुआ था इस बार?

वैसे तो इस मौसम में सात-सात दिन तक लगातार बारिश होती ही है, यह कोई नई परिघटना नहीं है, लेकिन नदियों में जो उफान आया और उसकी वजह से जो नुकसान हुआ है, वह चिंता का विषय है। लगातार तीन दिन भारी बारिश होने के बाद पूरे प्रदेश में, खासकर ब्यास नदी के पूरे कैचमेंट एरिया में नदियों में बड़ा उफान आया। मनाली से लेकर मंडी तक ब्यास और उसकी छोटी-छोटी धाराओं में प्रवाह बढ़ गया। बारिश तो प्राकृतिक है, लेकिन मेरा मानना है कि यह उफान प्राकृतिक नहीं है। मैं मानता हूं कि यह मानवजनित है।

Advertisement

इस उफान की वजह क्या थी?

इस बारिश में देखा जाए, तो पानी का बहाव उतना ही था जितना होना चाहिए। उन कारणों को समझना जरूरी है, जिससे उतने ही पानी से तबाही ज्यादा हुई। जबसे बरसात शुरू हुई, दो दिन बाद सारे बांध खोल दिए गए। इसने पानी के बहाव को उछाल मिला। दूसरा कारण हैं सड़कें, जो बिना किसी वैज्ञानिक तरीके के बनाई गईं और उनके मलबे को नदियों-नालों में बिखेर दिया गया। उस मलबे ने पानी के साथ मिलकर सबसे ज्यानदा नुकसान किया है। जो बड़े-बड़े पुल बह गए हैं, वह इस मलबे के कारण हुआ है। फोरलेन सड़क जहां-जहां निकली है उसका सारा मलबा नदियों में डाला गया था। गांव की सड़कें भी ऐसे ही अवैज्ञानिक तरीके से बनाई गई हैं। पेड़ों का कटान तो हुआ ही है। चाहे व्यापारिक दृष्टि से हो, चाहे डेवलपमेंट प्रोजेक्टों के कारण, लेकिन जंगल खाली हुए हैं। इससे भूमि का कटान बढ़ा है और पानी का बहाव तेज हुआ है। समाज की गलती है कि उसने नदियों के किनारे, नदियों के बेसिन पर कब्जा करके मकान बनाए। यूरोप के आल्प्स में भी सड़कें बनती हैं, निर्माण होते हैं, वहां इस तरह का नुकसान क्यों नहीं होता? हम बिना तकनीक अपनाए, धड़ाधड़ सड़कें निकाल रहे हैं और निर्माण कर रहे हैं। ऐसे-ऐसे बुद्धिजीवी नेता हैं हमारे जो नदियों के किनारे बस स्टैंड बना देते हैं। धर्मपुर में बाढ़ आ गई, कोई सवाल नहीं। जयराम ठाकुर जी ने अपने गांव के लिए सड़क बनाई। दो बार थुनाग में बाढ़ आ चुकी। उसी सड़क का मलबा जो नाले में गिराया वह आज थुनाग मार्केट में लगातार आ रहा है। ये चीजें सोचने की हैं।

इससे पहले आपने कब ऐसी बाढ़ देखी या सुनी थी?

मेरे एक मित्र हैं। फॉरेस्ट कंजर्वेशन अफसर रहे हैं। उनसे बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि 1978 में पिछली बार ऐसी बाढ़ आई थी। मैं इसे नहीं मानता। मैंने ऐसी ही बाढ़ 1998 में देखी है। मनाली वाली बाढ़। मैं कुल्लू का गजेटियर देख रहा था। उससे पता चला कि सौ साल पहले भी ऐसी ही बाढ़ आई थी। उसमें सैंज पूरी तरह वॉशआउट हो गया था। इस बार भी सबसे ज्यादा तबाही सैंज में ही मची है लेकिन उसकी तस्वीरें बाहर नहीं आई हैं। वहां रेड अलर्ट के बावजूद पार्वती डैम के गेट खोल दिए गए थे। डैम के किनारे डंपिंग की गई थी। पानी अपने साथ मलबे को लेकर आया, तो पूरा बाजार साफ हो गया।

मतलब यह कोई नई बात नहीं है, समस्या पुरानी है?

आप अगर पीछे जाकर देखोगे तो पता चलेगा कि यह अंग्रेजों की वन नीति की देन है। अंग्रेजों ने यहां जो सिल्वीकल्चर (वनवर्धन) शुरू किया था, मैं उसको इस सब का जिम्मेदार मानता हूं। वे पेड़ों की क्लीयर फॉलिंग करते थे। यहां से वे लकड़ी काटकर कराची के रास्ते इंग्लैंड ले जाते थे। आजादी के बाद वनों की कटाई को लेकर यही पॉलिसी जारी रही। कोई बीसेक साल पहले जब ब्यास में बाढ़ आई थी तब हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट ने निर्माण संबंधी कुछ निर्देश जारी किए थे। आज उन निर्देशों का क्या हुआ, यह सवाल सरकार से किया जाना चाहिए। हाइकोर्ट को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए कि चाहे लोग हों या सरकार, रिवर बेसिन पर कैसे अतिक्रमण किया गया और उसको कैसे बहाल किया जाए।

लेकिन नुकसान इस बार ज्यादा हुआ है?

वैसे तो चार हजार करोड़ रुपये का नुकसान बता रहे हैं, लेकिन और ज्यादा हो सकता है। सबसे ज्यादा नुकसान जल शक्ति मिशन में हुआ है जिसकी बात नहीं हो रही। मैंने खुद देखा है, करोड़ों के पम्प बरबाद हो गए।

ऐसी आपदा से बचने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

हमने अपने यहां तीर्थन घाटी में आंदोलन करके हाइडल प्रोजेक्ट रुकवाए, जिसका नतीजा है कि हमारे इधर ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। पहली बात तो विकास की अवधारणा की है। फिर अवैज्ञानिक तकनीक से सड़कें बनाने, बांध बनाने, जंगल की कटाई, मिट्टी की कटान और नदी घाटी पर कब्जे का सवाल है। सरकार को चाहिए कि जो विकास का उसका मॉडल है उसको वह यहां की परिस्थिति के मुताबिक निर्धारित करे और पूरे वैज्ञानिक तरीके से निर्माण कार्य हों। सरकार पर हमें दबाव बनाना चाहिए कि हाइकोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन करने वाले निर्माण कार्य पर रोक लगे, वैज्ञानिक तरीके से निर्माण हो, वाटरशेड का खयाल रखा जाना चाहिए और पानी के बहाव को कैसे अवरुद्ध न किया जाए, उस पर सोचना चाहिए। तभी जाकर पहाड़ में परिस्थितियां पूरी बसाहट के लिए सामान्य रह सकती हैं।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: Guman Singh, Coordinator of the Himalayan Policy Campaign, Interview, Abhishek Srivastava, Outlook Hindi
OUTLOOK 29 July, 2023
Advertisement