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19 February 2024

आवरण कथा: तालीम के सिपाही

पुलिस और शिक्षक दोनों का काम समाज के हित में होता है। शिक्षक अगर अपना काम अच्छे से करे, तो पुलिस का काम भविष्य में आसान हो जाता है क्योंकि उसे कानून का पालन करने वाले अच्छे नागरिक मिलते हैं। उसी तरह पुलिस अगर कानून व्यतवस्था कायम रखे, तो शिक्षा जैसी सेवाएं सुचारु रूप से चलती रहें। इस लिहाज से दोनों पेशे एक दूसरे के पूरक भी हैं। इसके बावजूद विडंबना यह है कि लोग शिक्षक को अच्छी नजर से देखते हैं और पुलिस को बुरी नजर से देखते हैं। यह विडंबना और किन्हीं दो सरकारी पेशों के बीच देखने को नहीं मिलती। जनधारणा के स्तर पर दो पूरक लोक सेवाओं के बीच का यह फर्क ही शायद पुलिसवालों को दूसरे सम्मानजनक पेशों की ओर मुड़ने को प्रेरित करता होगा। बीते कुछ वर्षों के दौरान पुलिसवालों के लेखक, समाजकर्मी और शिक्षक बनने के कई उदाहरण सामने आए हैं। कुछ तो बहुत चर्चित भी हुए हैं। यह जरूरी नहीं कि लेखक या शिक्षक बनने वाला हर पुलिसकर्मी बुरी धारणा का ही मारा हो और अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए पढ़ाई-लिखाई की तरफ मुड़ा हो। इस मामले में सबकी अपनी-अपनी वजहें हैं। 

इन वर्दीधारी मास्टरों की खेप हर उस जगह से निकल रही है जहां के लोग किसी कारणवश शिक्षा के प्रति उदासीन हैं। चाहे वे दिल्ली के कॉन्स्टेबल थान सिंह हो या राजस्थान के धर्मवीर जाखड़ या मध्यप्रदेश के सब इंस्पेक्टर भखत सिंह ठाकुर- सभी ने अपनी-अपनी जगह पर पुलिसिया दायित्व के अलावा पिछड़े इलाकों में शिक्षा की अलख जगाने का काम किया है।

इस मामले में मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में तैनात सब-इंस्पेक्टर भखत सिंह का केस खास है क्योंकि उनका पहला पेशा 'मास्टर' का ही था। वे पहले सरकारी शिक्षक थे। बाद में वे पुलिस महकमे में शामिल हुए। इसके बावजूद उन्होंने अपने 'पहले प्यार' को नहीं छोड़ा। वे अपने इलाके में गरीब बच्चों को शिक्षा देते हैं।

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पढ़ाई का आलमः मिशन गुणवत्ता का एक स्कूल

पढ़ाई का आलमः मिशन गुणवत्ता का एक स्कूल

आउटलुक हिंदी से एक खास बातचीत में वे कहते हैं, “आज मेरे पास करीब 300-400 गरीब बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। इससे इस क्षेत्र की साक्षरता के स्तर में सुधार आया है।”

भखत सिंह बताते हैं कि 2020 में जब वे बृजपुर थाने में आए थे तब थाने पर विभिन्न किस्मच के 324 अपराध दर्ज थे, लेकिन 2022 में ऐसे मामले घटकर केवल 185 रह गए। उनका मानना है कि पुलिसिंग के साथ यह शिक्षा का भी कमाल है।

संस्थागत पहलें

बिहार के आइजी विकास वैभव भखत सिंह के दावे की पुष्टि करते हैं। खाकी वर्दीधारी शिक्षकों द्वारा पढ़ाई से बच्चे ही सफल नहीं हो रहे बल्कि इलाके में आपराधिक घटनाओं में भी कमी आ रही है। वैभव कहते हैं, "कम्युनिटी पुलिसिंग के एक भाग में शिक्षा भी है। कई अपराधग्रस्त जिलों में भी मेरे साथ मेरा कार्यक्रम चलता रहा। मसलन, यहां तो डाकुओं ने भी विभिन्न संदेशों और शिक्षा के माध्यम से आत्मसमर्पण किया है।"

राजस्थान की डूंगरपुर पुलिस ने बाकायदे एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसमें पुलिसवालों को स्कू्लों में पढ़ाने को प्रेरित किया जाता है। इस महत्वपूर्ण कार्यकम को संयुक्त राष्ट्र का सहयोग मिला है। स्कूल सेफ्टी ऐंड एडोलेसेन्स एम्पावरमेंट प्रोग्राम के तहत 376 पुलिस कांस्टेबलों ने जिले के 376 सरकारी और निजी स्कूलों में शिक्षकों की भूमिका निभाई है।

पढ़ाई का आलमः मिशन गुणवत्ता का एक स्कूल

बिहार के प्राइमरी स्कूलों में करीब 746,479 शिक्षक होने चाहिए, लेकिन राज्य में फिलहाल 278,602 शिक्षक ही नियुक्त हैं

डूंगरपुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) अनिल जैन बताते हैं, “जिले में 376 पुलिस बीट हैं, प्रत्येक का नेतृत्व एक कांस्टेबल करता है। स्कूल सुरक्षा कार्यक्रम के तहत हमने प्रत्येक बीट कांस्टेबल को एक स्कूल सौंपा है।” यह समूचा कार्यक्रम अब यूनिसेफ द्वारा वित्तपोषित है।

इसी तरह बिहार के तीन जिलों गोपालगंज, समस्तीपुर और औरंगाबाद में राज्य के नौकरशाहों के एक समूह ने आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों के लिए एआइएम (आंबेडकर इंस्टीट्यूट फॉर मार्जिनलाइज्ड) नाम से एक खास पाठशाला शुरू की है। एआइएम पाठशाला 2019 में तीन सरकारी अधिकारी, संतोष कुमार (आइएएस), विजय कुमार (आइआरटीएस) और रंजन प्रकाश (डिप्टी कमांडेंट, सीआरपीएफ) ने मिलकर इसकी शुरू की।

यह एक पूर्ण विद्यालय नहीं बल्कि समाज के गरीब तबके के कक्षा 1 से 10 तक के बच्चों के लिए एक पूरक शैक्षणिक संस्थान के रूप में कार्य करता है। भविष्य में एआइएम पाठशाला को बिहार के सभी 38 जिलों में विस्तार करने की योजना है, हालांकि पैसे और जमीन जैसे बुनियादी ढांचे की कमी ने इस प्रयास को फिलहाल रोक दिया है।

निजी पहल

ऐसे मामलों में राजस्थान जैसी सरकारी या संस्थागत के बजाय निजी पहलें ज्यादा दिखती हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर में रेल एसपी के पद पर तैनात डॉ. कुमार आशीष ‘एसपी की पाठशाला’ चलाते हैं। उनके यहां मुख्य रूप से फुटपाथ पर, झुग्गी में रहने वाले और कचरा बीनने वाले बच्चे पढ़ने आते हैं।

आशीष आउटलुक से बताते हैं, “मेरा बचपन अभाव और पैसों की तंगी में गुजरा है। शुरुआत में मेरी पोस्टिंग किशनगंज में हुई और वहीं ऐसे बच्चों का मार्गदर्शन करने का मुझे विचार आया। इसके बाद जब किशनगंज में आया तो लोगों ने इसे 'एसपी की पाठशाला' नाम दे दिया।"

युवाओं को मार्गदर्शन देने के लिए आशीष ‘लेट्स इंस्पायर जनरेशन’ नाम से एक कार्यक्रम भी चलाते हैं। ऐसे ही एक एसपी चंदन झा हैं जिनकी पोस्टिंग फिलहाल झारखंड के बोकारो में है। फिल्म ‘गंगाजल’ से प्रेरित होकर लोकसेवा में आए चंदन झा युवाओं को प्रतियोगी परीक्षा निकालने में मदद करते हैं। उनके पढ़ाए बच्चे आइआइटी वाराणसी और गोहाटी में पढ़ रहे हैं।

झा बताते हैं, "मेरी यात्रा में बोकारो के रामरूद्र हाइस्कूल का खास स्थान है। 2021 में इस स्कूल के 12वीं के सभी बच्चे झारखंड बोर्ड में प्रथम आए थे। इनमें से स्कूल टॉपर अर्णव कुमार को तो मैंने महज छह महीने पढ़ाया था। मैं हर रविवार विशेष कक्षा लेने जाता था। अर्णव ने परीक्षा में 95.6 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे। वह कहता है कि उसे मेरे पढ़ाने से इतने नंबर आए, मैं कहता हूं मैंने सिर्फ दिशा दी और यह अंक उनकी मेहनत का परिणाम हैं।"

कुछ ऐसी ही निजी पहलें बहुत मशहूर हो गई हैं, जैसे बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद। पुलिस सेवा से अब सेवानिवृत्त हो चुके अभयानंद एक कद्दावर अधिकारी माने जाते रहे हैं। उनके मार्गदर्शन में अनेक छात्र या तो पढ़ रहे हैं या इंजीन‌ियर बन के देश-विदेश में नौकरी कर रहे हैं।

रिटायरमेंट के बाद सरकार की तरफ से कई बड़े ऑफर मिलने के बावजूद अभयानंद ने शिक्षा के क्षेत्र को क्यों चुना, इस पर वह आउटलुक से कहते हैं, "सरकार का कितना काम करें, समाज का भी तो ऋण है। उसे भी चुकाना है। मैं गणित-भौतिकी का छात्र था, सो इसी क्षेत्र में कुछ करने का सोचा। आज भी देश में ऐसे लाखों छात्र हैं जो पैसे न होने के कारण उड़ान नहीं भर सके। मैंने उनके सपनों में साथ देने का विचार किया।"

वे कहते हैं, "अभी हजारों बच्चे देश-विदेश में हैं। वे वहां बहुत अच्छा कर रहे हैं। उन्हें देख कर सुकून मिलता है।" (देखें इंटरव्यू) इस सदी की शुरुआत में आनंद कुमार के साथ मिलकर ‘सुपर 30’ को स्थापित करने वाले अभयानंद ने राज्य में जिस शिक्षा-क्रांति का बिगुल फूंका था, उसका असर आज पूरे राज्य में दिख रहा है। यहां के पुलिस महकमे के कई ऐसे लोग हैं जो अपनी ड्यूटी से इतर आसपास के छात्रों को शिक्षित और जागरूक करने में जुटे हैं। सुपर 30 पर बॉलीवुड में फिल्म भी बन चुकी है। 

बदहाल शिक्षा

शिक्षा के क्षेत्र में पुलिसवालों की निजी या सांस्थानिक पहलों के पीछे शिक्षा क्षेत्र की बुरी हालत भी जिम्मेदार है, जो उन्हें अपनी राह बदलने को प्रेरित करती है। इस मामले में बिहार और झारखंड जैसे राज्यों की स्थिति ज्यादा बुरी है।

अर्थशास्‍त्री ज्यां द्रेज और शोधकर्ता परन अमिताव द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट 'ग्लूम इन द क्लासरूम' के मुताबिक झारखंड के अधिकांश स्कूल शिक्षकों की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं और अधिकतर स्कूलों में चालू शौचालय, बिजली और पानी की आपूर्ति जैसे बुनियादी ढांचे की कमी है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के अधिकतर स्कूल अब भी शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदंडों का पालन नहीं कर रहे हैं।

बिहार के एक सरकारी प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका कहती हैं, "राज्य में प्राइमरी एजुकेशन एक समय अच्छी स्थिति में था, लेकिन अब शिक्षण कार्यों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू होने के कारण यह नष्ट हो गया है। अगर उच्च शिक्षा बदहाल रहेगी तो हमें अच्छे शिक्षक कैसे मिलेंगे और अगर हमें अच्छे शिक्षक नहीं मिल सके, तो प्राइमरी एजुकेशन खराब स्थिति में ही रहेगी।"

यह एक ऐसा दुष्चक्र है जो बरसों से कायम है और सुलझने का नाम नहीं ले रहा। आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। बिहार में प्राइमरी स्कूल (कक्षा 1 से कक्षा 8) में आवश्यकता से 37.3 प्रतिशत कम शिक्षक हैं। द राइट ऑफ चिल्ड्रन टु फ्री एंड कंपल्सरी एजुकेशन, 2009 के मुताबिक प्राइमरी स्कूल में प्रत्येक 30 छात्रों पर एक शिक्षक और अपर प्राइमरी स्कूल में प्रत्येक 35 छात्रों पर एक शिक्षक होने चाहिए, लेकिन भारत सरकार के यू-डीआईएसई फ्लैश आंकड़ों के अनुसार बिहार के प्राइमरी स्कूलों में 36 छात्रों पर एक शिक्षक है, जो उत्तर प्रदेश के बाद भारत की सबसे कम दर है। बिहार के प्राइमरी स्कूलों में करीब 746,479 शिक्षक होने चाहिए, लेकिन राज्य में फिलहाल 278,602 शिक्षक ही नियुक्त हैं।

ज्ञान विज्ञान समिति की एक रिपोर्ट झारखंड में भी ऐसी ही स्थिति को दर्शाती है। सर्वेक्षण के अनुसार झारखंड के कम से कम 20 प्रतिशत स्कूलों में केवल एक शिक्षक हैं। इनमें से अधिकांश एकल-शिक्षक स्कूल पैरा-शिक्षकों (स्थायी शिक्षकों के विपरीत) द्वारा चलाए जा रहे थे। उदाहरण के लिए, झारखंड के गिरिडीह के कोदाय डीह के एक स्कूल में 78 छात्र हैं, लेकिन वहां केवल एक शिक्षक है। वहीं, दुमका के धनबाशा में जंगल के अंदर स्थित एक स्कूल में केवल एक पैरा-शिक्षक है।

स्कूलों से बाहर बच्चे

जब नींव ही ठीक न हो तो मकान कमजोर ही बनता है। शिक्षकों की कमी से जूझ रहे बिहार और झारखंड की शिक्षा व्यवस्था का यही आलम है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पूरे झारखंड में 86,000 से अधिक बच्चे स्कूल से बाहर हैं। इसमें सबसे ज्यादा 15,249 छात्र दुमका में हैं, जिन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिल रही है। स्कूल से बाहर रहने वाले कुल 86,636 छात्रों में से 66,568 छात्र प्राइमरी जबकि 20,068 छात्र सेकेंडरी के हैं।

चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) और सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी के अध्ययन के मुताबिक बिहार अपने कुल बजट का 17.7 प्रतिशत स्कूली शिक्षा पर खर्च करता है जो प्रति छात्र मात्र 9,583 रुपये हुआ, जबकि देश भर में केंद्रीय विद्यालयों (केवी) द्वारा प्रति छात्र 32,263 रुपये खर्च किए जाते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार का प्रतिछात्र खर्च गोवा (67,041 रुपये), केरल (38,811 रुपये), तमिलनाडु (23,617) और कर्नाटक (22,856) जैसे राज्यों द्वारा किए गए खर्च से काफी कम है।

इसी बदहाली का असर है कि बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में प्राइवेट ट्यूशन का जोर बढ़ा है। इसी ट्यूशन प्रणाली का एक अंग सरकारी कर्मचारी और पुलिसवाले भी हैं। कुछ तो वास्तव में निजी प्रेरणा से बिना किसी लाभ-लोभ के पढ़ा रहे हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में ट्यूशन या कोचिंग पढ़ाने के पीछे प्रेरणा पैसा कमाने की ही रहती है। इसी में कोई अच्छा शिक्षक मिल जाए तो कैरियर की नाव पार लग जाती है, जैसा ट्वेल्थ फेल के नायक के साथ हुआ। वरना कुछ हासिल नहीं होता।

आकांक्षा बनाम संसाधन

हाल ही में ट्वेल्थ फेल नाम की एक कहानी पर इसी नाम से बनाई गई एक फिल्म आई है। इसे समीक्षकों और दर्शकों ने काफी सराहा। यह फिल्म एक ऐसे पुलिस अफसर की कहानी है, जो मुफलिसी में जीवन गुजारने के बावजूद मेहनत और लगन के बूते आइपीएस बनने में कामयाब रहा। इस फिल्म के मुख्य किरदार के संघर्ष और उसके इर्द-गिर्द के माहौल को दर्शाता एक डायलॉग है, "क्या समझता है तू कि बस तुम्हारा लड़ाई है ये, हम सबका लड़ाई है ये।"

यह शायद यूपी, बिहार और झारखंड के अधिकतर आकांक्षी परिवारों की कहानी है, जहां परिवार जमीन का टुकड़ा बेचकर बच्चों को पढ़ाते हैं और उसके कठिन संघर्ष के दम पर एक दिन जिंदगी बदल जाने का ख्वाब बुनते हैं। भले ही दिल्ली को बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं का मक्का कहा जाता है, लेकिन बिहार और झारखंड ऐसे राज्य हैं जहां के छात्र इस लड़ाई में सबसे ज्यादा सफल होते हैं जबकि इनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।

जाहिर है, संसाधन के अभाव में संघर्ष कर के जब कोई लड़का आइएएस या आइपीएस बनता है तो वह इस बात को भूलता नहीं है कि यह लड़ाई अकेले उसकी नहीं, सबकी है। वही फिर सबकी प्रेरणा बनता है और उसे देख कई और नायक बनते हैं। शायद यही अहसास चंदन झा या आशीष या भखत सिंह ठाकुर जैसे चुपचाप अपना काम कर रहे नायकों को हमारे समाज में बचाए रखता है।

 

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TAGS: Retired constables, inspectors and officers, Education world, Bihar
OUTLOOK 19 February, 2024
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