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04 January 2016

कवर स्‍टोरी: रूपहले पर्दे के आंखों के तारे

AP

इसकी शुरुआत छींकने से हुई। फ्रेड ओट नामक एक अमेरिकी ने 7 जनवरी 1894 को कैमरे में ही छींक दिया था। थॉमस अल्वा एडिसन (जो बमुश्किल आविष्कारक थे, वह युवा इंजीनियरों से भरी एक फैक्ट्ररी चलाते थे जहां वे सभी उनके और अपने सिद्धांतों पर काम करते थे और यदि उन सिद्धांतों से कुछ निकलता तो वह अपने नाम से उनका पेटेंट करा लेते थे) ने अमेरिकी कांग्रेस लाइब्रेरी में तत्काल एडिसन काइनेटोस्कोप रिकॉर्ड ऑफ ए स्नीज की कॉपीराइट के लिए आवेदन कर दिया।  

इसके बाद चीजें तेजी से बदलीं। अन्य आविष्कारक एवं नवोन्मेषक आगे आए और उनमें से कई ने एक छींक की रिकॉर्डिंग से इतर अपने-अपने विचार पेश किए। पेटेंट के आवेदन तेजी से बढ़ते गए, खासकर फ्रांस से, और सन 1896 में एडिसन (जैसा कि जन्म से कोई स्वप्नद्रष्टा समझदार होता है) की फिल्म द किस बिटविन मे इरविन एंड जॉन राइस के रिलीज होने से बड़ा हंगामा खड़ा हो गया था। इसे यदि फिल्म कहा जाए तो इसके दो नामों के बीच चुंबन का पता चलता है और यही सेंसरशिप के लिए रूढि़वादी अमेरिकियों के हंगामे का कारण बना।

यह एक नई कला स्वरूप था और इसकी संभावनाएं अनंत थीं- और आज भी हैं। सन् 1902 में फ्रांसीसी फिल्म निर्माता जॉज्र्स मेलिस ने ग्रेट ब्रिटेन के एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक के कुछ माह पहले उन पर बनी एक फिल्म प्रदर्शित की थी जिसमें पात्रों (एडवर्ड सप्तम की भूमिका लाउंड्री में काम करने वाले एक व्यक्ति ने की थी और उसकी पत्नी बनी थी पेरिस नाइट क्लब की एक नृत्यांगना) से मिलते-जुलते कलाकारों को अभिनय दिया गया था और वेस्टमिंस्टर अबे को दर्शाने वाले सेट बड़ी सावधानी से बनाए गए थे। जन प्रतिक्रिया कम ही लेकिन मिली-जुली थी। 

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बेहतरीन योजनाओं से लबरेज मेलिस उसी वर्ष प्रत्येक दृष्टि से एक सच्ची उत्कृष्ट फिल्म वोयाज टु द मून लेकर आए जो विज्ञान कथा पर आधारित पहली फिल्म थी और पहली बार इसमें 'स्पेशल इफेक्ट्स', और अब जिसे 'सीजीआई' (कंप्यूटर संचालित इमेजरी) कहा जाता है, का इस्तेमाल किया गया था। कभी बौद्धिक संपदा के अधिकारों की परवाह नहीं करने वाले एडिसन ने सुनियोजित तरीके से इसकी नकल की, मेलिस के श्रेय को मिटाया और अमेरिका में फिल्म को प्रदर्शित कर बहुत सारे पैसे कमाए।

अधिक अनुभवी, दरिद्र और कड़वाहट से भरे मेलिस (जैसाकि बेन किंग्सले ने उनकी छवि बनाई थी) को मार्टिन स्कोर्सिज की सन 2011 में आई फिल्म ह्यूगो में देखा गया जो तब तक की बनी (स्कोर्सिज का जिक्र इस लेख में बाद में किया जाएगा) सर्वाधिक देखी जाने वाली फिल्मों में से एक थी।

पहली बार मुझे सिनेमा हॉल (इस निर्णय में मैं मना भी नहीं कर सकता था) बंगाली फिल्म एकटुकु बाशा (एक छोटा सा घर) देखने तब ले जाया गया, जब मैं महज एक साल का था। रोशनी बंद होते ही मैं अनियंत्रित क्रंदन करने लगा तो बारी-बारी से पिता, मां और चाचा मुझे बाहर ले गए, झूला झुलाया, दुलार किया और शांत करने की कोशिश की। विफल कोशिशों के इस समस्त वाकये को देख रहे सिनेमा हॉल के एक कर्मचारी ने कहा, 'आज तुम फिल्म देखना नहीं चाहते इसलिए रो रहे हो। कुछ वर्षों के बाद तुम फिल्म देखने के लिए रोओगे। ग्रीक मान्यताओं के मुताबिक, उस समय वहां मौजूद लोगों के बीच वह व्यक्ति एक भविष्यद्रष्टा बनकर उभरा।

लोग फिल्में क्यों देखते हैं? यदि आप ऐसा ही सवाल कला प्रदर्शनियों में जाने वाले या सेलुलर सेवा कंपनियों द्वारा संचालित हाफ मैराथन में हिस्सा लेने वाले लोगों से पूछेंगे तो आपको सरल जवाब मिल जाएगा लेकिन वे अपने तरीके से अपूर्ण जवाब ही देंगे तथा विस्तार से नहीं बता पाएंगे। फिल्म देखने वालों के पास इसका अपेक्षाकृत सीधा और सच्चा जवाब होगा, लेकिन फ्लोरा फाउंटेन से दादर तक दौड़ लगाकर पसीने बहाने वाले लोगों की तुलना में सिनेमा प्रेमियों को अधिक आसानी और वैज्ञानिक तरीके से वर्गीकृत किया जा सकता है।

अपनी 16 से 23 वर्ष की उम्र के दौरान हिंदी या अंग्रेजी में रिलीज हुई तकरीबन सभी फिल्में मैंने देखीं, बेकार फिल्में भी (जो आपातकाल के बाद और इंदिरा गांधी की सनकभरी नीतियों के बाद रिलीज हुई थीं और जिनमें आंशिक रूप से इन नीतियों की झलक मिलती थी, मैंने कई सारी रूसी फिल्में भी देखी हैं)। मैं मनोरंजन के लिए फिल्में देखता था, कभी दोस्तों के साथ तो कभी किसी लडक़ी के साथ, जिस कारण यह अवसर मेरे लिए और खास हो जाता था। जब मैं किसी लडक़ी के साथ जाता तो इस उम्मीद में हमेशा कोई डरावनी फिल्म ही चुनता था कि जब कोई विचित्र पात्र खून सने होंठों के साथ परदे पर अवतरित हो या चूहे नायिका के चेहरे पर उछल-कूद मचाने लगें तो मेरी मित्र कांप उठे, चिल्लाए, मुझसे लिपट जाए और मेरी बांहों के घेरे में आ जाए, उसे मजबूत भरोसेमंद पुरुष के करीब रहने का अहसास हो सके।

लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। कई बार मैं ही अपनी मित्र से लिपट जाता था। इन्हीं में से एक के साथ आखिर मेरी शादी हो गई। तरस से ऊपर उठकर आप इस स्थिति को समझ सकते हैं। हालांकि डरावनी फिल्में देखने में उसकी जरा भी दिलचस्पी क्यों नहीं रही, यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब मेरे पास नहीं है। मुझे पड़ताल करनी पड़ेगी। द इन्वेशन ऑफ द बॉडी स्नैचर्स के सभी छह संस्करण ले आइए जिनमें से एक में डेनियल क्रेग भी हैं।

लेकिन मैं झूठ बोल रहा हूं। बहुत कम उम्र में ही मेरे पिता ने मुझे सत्यजित रे की फिल्मों से वाकिफ कराना शुरू कर दिया था और वह हमेशा मुझे डेविड लीन (आज मेरा नजरिया डेविड लीन और उनकी योग्यता के प्रति बिल्कुल अलग है लेकिन इसका जिक्र फिर कभी) जैसे मशहूर निर्देशकों की फिल्में दिखाने ले जाते थे। अपनी किशोरावस्था में मुझे मुंबई के रामनारायण रूइया कॉलेज में पढऩे का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ जहां के बेहतरीन शिक्षकों से मैं अब भी मिलता रहता हूं। वहां एक फिल्म क्लब था और प्रत्येक सप्ताहांत होने वाली इस विशुद्ध तकनीकी सूक्ष्मता पर हम चकित होंगे- फिल्म का व्याकरण, जिसे आइंस्टीन ने स्ट्राइक या बैटलशिप पोटेमकिन (हम उनकी इवान द टेरिबल भी देखेंगे, स्तंभित करेंगे) में बखूबी पेश किया है। ला स्ट्राडा के अंत की हम आलोचना करेंगे और ला डोल्स विटा पर होने वाली आलोचनात्मक चर्चा करते हुए घर जाने की बात करेंगे, हालांकि हमने इसे आंखें फाडक़र देखी थी। 

स्पेक जरथुस्ट्रा देखकर हमारा सिर घनघना (यह आज भी हो रहा है) दिया था जिसमें एक अज्ञात सूर्य का उदय होता है और 2001: ए स्पेस ओडिसी (क्रिस्टोफर नोलन ने इंटरस्टेलर के जरिये 2001 से आगे निकलने का प्रयास किया, जब उनके पास सीजीआई के सारे अधिकार थे, स्टेनले कुब्रिक ने जब 2001 बनाई थी तो उस समय जिन चीजों का आविष्कार नहीं हुआ था, उन्हें भी नोलन ने दर्शनीयता बढ़ाने के लिए अपनी फिल्म में ठूंस दिया था। मैं समझता हूं कि बहुत ज्यादा मेहनत करने की कोशिश में उन्होंने पीठ पर भारी बोझ लाद लिया था) में अचानक से मानवीय समझ से बाहर एक विशालकाय पत्थर प्रकट होता है।

इस कला स्वरूप की अडिग दासता से मैं बचा रहा और आगे बढ़ता रहा। कला स्वरूप? यह क्या है? प्रौद्योगिकी का गोद लिया बच्चा? नहीं, नहीं और नहीं। मैंने टाइटेनिक नहीं देखी, क्योंकि इस फिल्म की लागत उस जहाज को अभी बनाने के खर्च से अधिक थी। इसके बजाय मैं चैपलिन की ग्रेट डिटेक्टर देखना पसंद करता हूं जिसमें वह सैकड़ों ब्लैकबेरी वाले एक लकड़ी के बक्से में बंद थे और रोमांच पैदा करने के लिए हल्के से बक्से को हिलाया तो दर्शकों को लगा कि इस मूर्खतापूर्ण पागलपन की बातों पर हजारों लोगों के सिर हिल रहे हैं और आनंद उठा रहे हैं। यह कला है, यह चतुराई भरी सोच है और इसकी लागत भी बहुत कम आई।

एक फिल्म का विषय बहुत जटिल होता है। यह दृश्य कला नहीं भी है और है भी। यह साहित्य भी नहीं है और है भी। यह थियेटर नहीं है और है भी। यह आभामंडलीय रचनात्मकता नहीं है लेकिन है भी। यह वे बैल हैं जिन्हें हमारे पूर्वज गुफाओं की दीवारों पर चित्रित करते थे। यह ऐसी कलाकृतियां हैं जिन्हें उन्होंने इन दीवारों पर उकेरा है।

एक फिल्म एक विशाल उद्योग होता है, जिनमें से 90 प्रतिशत मामलों में सैकड़ों लोग जुड़े होते हैं। प्रत्येक फिल्म के अंत में श्रेय देने की पड़ताल करें तो इसमें स्टंटमैन से लेकर हेयर ड्रेसर, इसके साथ जुड़े लोग और की ग्रिप (यह की ग्रिप क्या है? हम इसे विकीपीडिया में देख सकते हैं लेकिन अभी इसे रहस्य ही रहने दें) तक की भागीदारी का आकलन करना पड़ेगा। निश्चय ही फिल्में जेब खर्च से भी बनाई गई हैं, कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें अब मशहूर और लोकप्रिय हो चुके फिल्म निर्माताओं ने अपनी पहली फिल्म क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल कर बनाई है। लेकिन जिस चीज से इनकार नहीं किया जा सकता, वह यह कि लेखन या पेंटिंग की तरह सिनेमा को पूरी तरह एक व्यक्ति विशेष पर आधारित उद्यम नहीं कहा जा सकता। आप अपनी फिल्म शौकीनों के साथ मिलकर बना सकते हैं- जिस तरह सत्यजित रे ने पाथेर पंचाली बनाई- लेकिन इसमें भी आपको समूह की जरूरत होगी ही। आपको कम से कम एक कैमरामैन, एक संपादन समूह, कलाकारों और आउटडोर शूटिंग के दौरान भोजन परोसने वाले रसोइयों की जरूरत पड़ेगी।

तभी आप किसी चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं। यह अक्सर होता है और कई बार गोडार्ड्स, चेब्राल्स और काहियर्स डु सिनेमा के संपादक ट्रुफॉट्स जैसे रचनाकार यानी निर्देशक भूमिका तय करते हैं- और इसी चमत्कार की खोज करते हुए दर्शकों  में भी चमत्कार का अहसास कराते हैं। काहियर्स डु सिनेमा संभवत: दुनिया की पहली गंभीर (या कम से कम सैद्धांतिक रूप से उत्साही) फिल्मी पत्रिका है। और यहां एक विरोधाभास भी है। सिनेमा एक सामूहिक प्रयास है- अक्सर इसमें बहुत बड़ी टीमें (मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि टाइटेनिक बनाने में कितने लोग लगे थे) जुड़ी होती हैं लेकिन यह एक व्यक्ति का भी दृष्टिïकोण है- पूर्णरूप से या पूर्ण साधन के साथ (नेहरू ने अपने 'ट्राइस्ट विद डेस्टिनी' संबोधन में कहा था कि उनका दृढ़ विश्वास है कि जब भारत जगा था तो दुनिया सो रही थी, सेन फ्रांसिस्को के लोग खाना खाने की तैयारी में थे)। हम नहीं जानते कि कितने फाइनेंसर या स्टूडियो ने इस रचनात्मक प्रक्रिया में योगदान किया होगा लेकिन सिटीजन काने को हमेशा ऑर्सन वेल्स की फिल्म के लिए जाना जाता है, जैसे कि कुरोसावा की फिल्म सेवन समुराई और श्याम बेनेगल की फिल्म मंथन को याद किया जाता है।

सिनेमा वाकई एक जादू है और इस जादू को खास अंदाज में महसूस किया जाता है, किसी भी आकार की स्क्रीन पर फिल्में देखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने अंदाज में महसूस करता है। मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो डिज्नी एनिमेशन फिल्म कोर्स देखकर भी रो पड़े थे और ऐसे लोग भी देखे हैं जो विश्व के सर्वश्रेष्ठ आलोचकों द्वारा 'मर्मस्पर्शी' करार दिए गए दृश्यों को देखकर भी विचलित नहीं हुए हैं। यह सामान्य प्रक्रिया है। बेकेट की वेटिंग फॉर गॉडट देखने वाले बहुत कम लोग मोंटी पायथॉन की वेस्ट एंड फिल्म स्पैमेलॉट (मैंने स्पैमेलॉट देखी है और इसमें पौंड से रुपये में विनिमय दर के हिसाब से बहुत धन खर्च किया है। गॉडट देखने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है) देखने पर अपनी मेहनत की कमाई खर्च करना चाहेंगे।

लेकिन इसमें कुछ अंतर है। मुझे आश्चर्य होता है कि मार्टिन स्कोर्सिज (मैंने आगाह किया था कि इस लेख में उनका पुन: जिक्र किया जाएगा) जैसे निर्देशक सत्यजित रे को ऑस्कर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिलाने के लिए वर्षों तक मुहिम चलाएंगे। स्कोर्सिज और रे ने जो फिल्में बनाईं, उन फिल्मों के बीच, थीम, टोन, प्रस्तुति और तकनीकी को लेकर मोटे तौर पर कुछ भी सामान्य नहीं है। लेकिन वे एक ही भाषा में बोलते और समझते हैं- सिनेमा की भाषा। सच तो यह है कि स्कोर्सिज बंगाली संस्कृति, इतिहास और जीवन जीने के तरीके में फिल्मों के मर्म को ढालना पसंद करते हैं और उनका आनंद भी लेते हैं।

स्कोर्सिज (जो मेरे विचार से महानतम जीवित अमेरिकी निर्देशक हैं, सिर्फ मेरे विचार से, रे महानतम भारतीय हिंदी फिल्म निर्देशक थे) न्यूयॉर्क के एक असुरक्षित इतालवी-बहुल क्षेत्र में पले-बढ़े। उनकी ज्यादातर फिल्में गैंगस्टर्स, हिंसा और लोगों की मनोवैज्ञानिक या पहचान समस्याओं पर आाधारित हैं जिन्हें आप (मैं समझता हूं कि) अच्छी तरह समझ सकते हैं। लेकिन ये दोनों निर्देशक, स्कोर्सिज और रे, संभवत: कभी व्यक्तिगत रूप से नहीं मिले और न ही भाषा का आदान-प्रदान किया। किसी भी रूप में भाषा की साझेदारी दुनिया बदल सकती है। अलग लीक पर चलने वाले इन दोनों निर्देशकों के बारे में मेरे पसंदीदा लेखक ग्राहम ग्रीन (और मैं उनके बारे में विस्तार से वर्णन कर सकता हूं। मेरे पास अभी उनकी कोई पुस्तक नहीं है) ने लिखा है: 'हर तरह की हिंसा असल में संवादहीनता की स्थिति पैदा करती है।'

सिनेमा संवाद का ही एक माध्यम है। हम खास तौर से इतिहास के खौफनाक दौर में हैं। निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं और सिर कलम किए लोगों के वीडियो विजयी भाव से नेट पर फैलाए जा रहे हैं। हो सकता है कि पुतिन कल तुर्की पर बम गिरा दे, यदि वह सुबह उठ जाते हैं और मनोभाव को महसूस कर लेते हैं। अमेरिका और यूरोप अभी इस निर्णय पर नहीं पहुंच सके हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। शायद हम आम जनता को एक अवकाश लेने की आवश्यकता है।

सिनेमा अनजाने में यह अवकाश दिलाता है। विश्व के बेहतरीन फिल्म आलोचक माध्यम बनने के लिए लिखने का जज्बा रखते हैं, न कि विश्लेषक के तौर पर। अपनी जिंदगी में मैं जिन दो आलोचकों का प्रशंसक रहा हूं, वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं और संयोगवश दोनों अमेरिकन ही हैं- पाउलिन केल और रोजर एल्बर्ट। कृपया मुझे एल्बर्ट के बारे में बताने की अनुमति दें, जो अपनी नौकरी के तहत चालीस वर्षों तक रोज तीन फिल्में देखा करते थे: 'हम फिल्मों को समझ सकते हैं जो हमारी वास्तविक जिंदगी के अनुभवों के साथ-साथ अधिक सशक्त रूप से प्रभावित करती हैं। ऐसी फिल्में हास्य और दुखांत दोनों हो सकती हैं, गंभीरता के साथ और दिल से हंसना भी रोने जितना ही महत्वपूर्ण है। किसी दृश्य या पूरी फिल्म को देखकर हम जो महसूस करते हैं, वह हमारे विचारों और भावनाओं से बहकर निकलता है और इन भावनाओं पर हमारा वश नहीं रहता। हमारी भावनाएं उन लोगों के भावनात्मक अनुभवों से निर्देशित होती हैं जो इन्हें महसूस कर चुके होते हैं और हमारे साथ वे इनकी बेहतर अभिव्यक्ति करते हैं।'

मेरे लिहाज से यही सिनेमा है या कला की एक कृति है, चाहे वह अनाड़ी या नौसिखिया कृति ही क्यों न हो। कोई महिला खुद को तलाशने का प्रयास करती है और आपके साथ साझा करना चाहती है। मैं समझता हूं कि उसे उसकी यात्रा के लिए प्रोत्साहित करना आपका कर्तव्य है। लेकिन एल्बर्ट की मृत्यु आईएसआईएस के उदय से पहले हो गई थी और यूट्यूब सूर्य की रोशनी के बाद तीसरा सबसे सशक्त दृश्य संचार माध्यम बन चुका है। कुछ चीजें साझा नहीं की जा सकतीं और वे चीजें खुद ब खुद रुक जाएंगी, बल्कि रुकने से कहीं ज्यादा वे पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी। हमें आज वास्तविकता की ओर लौटना होगा- यानी इस दुनिया में कोई भी डिजिटल वीडियो कैमरा खरीद सकता है और अपनी क्रूरता को वह नेट पर डाल सकता है। इसके लिए किसी को दहाई अंक के आईक्यू की जरूरत नहीं पड़ती। दृश्य मीडिया का संपूर्ण लोकतंत्रीकरण अच्छी बात भी है और बुरी भी। अन्य चीजों की तरह।

हालांकि मुझे आउटलुक की तरफ से इन सब चीजों के बारे में लिखने के लिए नहीं कहा गया। हम यहां सिनेमा का जश्न मनाने की तैयारी में हैं। अब तक की सबसे महान फिल्में कौन सी रही हैं? अपनी तरफ से मैं जैसन स्टेथम की ट्रांसपोर्टर के अलावा गोडर्ड की मैस्कुलिन फेमिनिन या एलन पार्कर की मिसीसिपी बर्निंग (हालांकि यहां 'लुत्फ उठाना' शब्द का गलत इस्तेमाल हो सकता है) या अब तक की अवसादग्रस्त-रोधी महानतम फिल्म सिंगिंग इन द रेन देखकर लुत्फ उठाता हूं।

वे मुझसे बात करते हैं तो मुझे सुखद अनुभव होता है। सिनेमा अब तक का विकसित सबसे जटिल, कठिन मेहनत चाहने वाला और सामूहिक सुखदायी कला स्वरूप है। निश्चित रूप से किसी अन्य कला स्वरूप की तुलना में इसमें अधिक व्यावसायिक हित है। यह अपरिहार्य है।

अब तक की बनीं सर्वश्रेष्ठ फिल्में? ये ऐसी फिल्में हैं जो मुझे हंसाती और रूलाती हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ फिल्म वह है जो मुझे तत्काल ऐसा करने के लिए मजबूर करती है।

(आउटलुक के पूर्व प्रबंध संपादक संदीपन देब अब स्वराजमैग.कॉम के संपादकीय निदेशक हैं।)

 

 

 

 

 

 

 

 

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TAGS: फ्रेड ओट, थॉमस अल्वा एडिसन, काइनेटोस्कोप रिकॉर्ड ऑफ ए स्नीज, इरविन एंड जॉन राइस, जॉर्ज्स मेलिस, फ्लोरा फाउंटेन
OUTLOOK 04 January, 2016
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