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20 September 2015

पैमिला मानसी की कहानी 'कैसा यह खौफ'

गूगल

यह अकेलापन अब काटने को आता है। शायद बढ़ती उम्र की ही देन है यह खालीपन, यह सूनापन। खाली घर, खाली कमरे, खाली सड़कें, खाली पड़ोस, खाली दिलो-दिमाग भी। आगे देखने को कुछ नहीं, पीछे इतना सब कि मुड़कर देखने का मन नहीं होता। यह अकेलापन अपने आप में एक खौफ़ पैदा करता है। खौफ, डर, दहशत कुछ भी कह लीजिए। इस डर को बढ़ाती हैं आए दिन की वारदातें। लूट-मार, डकैती, हत्या, अपहरण, बलात्कार हर तरह की हिंसा, जो शब्दों में बयान नहीं की जा सकती, जिसके लिए शायद शब्द हैं ही नहीं। उनके बारे में सुनते, पढ़ते, सोचते यह खालीपन, यह डर और भी बढ़ जाता है। खुलकर सांस लेना मुश्किल हो जाता है। अपने आसपास, आगे-पीछे, दाएं-बाएं परछाइयां मंडराती दिखती हैं। दिन आशंका में घिरे रहते हैं, रातें दहशत में।

 

 

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कल रात भी सब बंद दरवाजे खिड़कियों को दो बार अच्छी तरह जांचकर सोया था। अचानक करवट बदलने लगा तो एहसास हुआ मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूं। बूढ़ा और दुर्बल। इतना कि करवट बदलने में भी थक गया। लगा जैसे पलंग पर नहीं पत्थरों पर लेटा हूं, जैसे पत्थरों के कोने बूढ़ी हड्डियों में चुभ रहे हों। दाईं तरफ देखा, मेरे साथ छह-सात लोग सीधी कतार में लेटे थे। बाईं ओर दूर तक सड़क के किनारे बनी पटरी दिखाई दी, जिस पर मैं लेटा था। एक बार फिर पलटा और सीधा पीठ के बल लेटकर तारों भरे खुले आकाश को देखने लगा। दिल्ली जैसे महानगरों में कहां देखने को मिलता है ऐसा खुला, तारों भरा आकाश! मैं उन तारों से बातें कर ही रहा था कि तभी मेरी बाईं ओर रोशनी चमकी। रोशनी की एक मोटी लकीर आगे बढ़ती आ रही थी। बूढ़े, थके हुए दिमाग को यह समझने में पलभर लग गया कि यह रोशनी एक कार की बड़ी-बड़ी, तेज हेडलाइट्स थीं, जो तेज रफ्तार से मेरी ओर बढ़ी चली आ रही थी। मेरे साथ लेटे दूसरे फुटपाथिए आंख झपकते ही हड़बड़ाकर उठ बैठे और अपनी-अपनी गठरी उठाकर उल्टी दिशा में भाग खड़े हुए। मेरे ही शिथिल हाथ-पांव गति नहीं पकड़ पाए, मैं ही समय रहते संभल नहीं पाया। जब तक संभला, उस बड़ी सी गाड़ी के आगे वाले दो पहिये पटरी पर चढ़ गए और मैं उनमें से एक की चपेट में आ गया। पूरे शरीर में दर्द की एक तेज लहर उठी और उसके बाद मेरा शरीर और दिमाग दोनों जैसे सुन्न हो गए। केवल जागती आंखें उस दृश्य को देख रही।

 

 

ड्राइवर की सीट से एक अमीरजादी उतरकर गाड़ी के बाहर आई। लड़खड़ाते पैर, झूलता शरीर। बनाव-सिंगार ऐसा कि उसकी आयु का अनुमान लगाना कठिन था। दूसरी ओर के दरवाजे से उसी जैसी एक और अप्सरा उतरी। अमीरजादी लड़खड़ाती आवाज़ में बोली, ‘जल्दी हस्पताल पहुंचा देते हैं।’

 

 

दोनों मेरी ओर बढ़ीं, लेकिन मेरे लहू-लुहान शरीर को देखते ही शायद उनका सारा नशा उतर गया। अप्सरा ने घबराकर कहा, ‘यह तो बुरी तरह जख्मी है। पुलिस केस बन जाएगा। पता नहीं बचेगा भी या नहीं। इस झमेले में मत पड़ो भागो यहां से।’

 

‘इसे यूं ही छोड़कर?’

 

‘बातों में वक्त मत गंवाओ। इससे पहले कि इसके साथी जमा हो जाएं और हमें घेर लें हमें यहां से भाग जाना चाहिए।’

 

गाड़ी जिस आंधी की रफ्तार से आई थीं, उसी रफ्तार से गायब भी हो गई। मेरी खुली आंखों ने देखा, मेरे साथी भागते हुए वापस आ रहे थे। उसी क्षण धूलभरी तेज आंधी चलने  लगी और मेरे साथी वापस बस स्टैंड की ओट में चले गए। मैं समझ गया मेरे लहू-लुहान शरीर की गति नहीं होने वाली थी। न कोई उसे जल्दी से अस्पताल ले जाने वाला था न शमशान। इसलिए मैं भी अपने टूटे-फूटे शरीर को वहीं छोड़ गाड़ी के पीछे हो लिया। तेजी से भागती गाड़ी का पीछा करने के लिए मैं सरपट भागने लगा, लेकिन यह क्या मैं तो जैसे उड़ रहा था। पलक झपकते ही कार के साथ हो लिया और उसकी गति से ही चलने या दौड़ने लगा या शायद उड़ने।

 

महल जैसे बंगले पर कार से उतरते हुए अमीरजादी ने अपनी साथी से कहा, ‘आज रात मेरे घर पर ही रुक जाओ। मुझे कुछ डर सा लग रहा है। किसी ने देख न लिया हो मेरी गाड़ी को फुटपाथ पर चढ़ते।’

 

‘रुक जाती हूं। कोई परेशानी नहीं। लेकिन तुम घबरा क्यों रही हो? कोई नहीं था आसपास। रहा भी हो तो क्या फर्क पड़ता है? गवाह तो आए दिन अपने बयान बदलते रहते हैं। बस, इस बात का ध्यान रखना होना होगा कि हम पुलिस से पहले पहुंच जाएं उस गवाह तक। फिक्र मत करो। कल सुबह उठते ही भेज देना अपने सेक्रेटरी को उस जगह, खोज-खबर लाने के लिए।’

 

अमीरजादी को सुझाव पसंद आ गया और वह शांत हो गई। भीतर जाकर उसने अपने घर में काम करने वालों को बुलाया और कार के पहिये अच्छी तरह धोने का आदेश दिया। फिर दोनों ने गरम पानी के शॉवर में तन-मन को आराम दिया। फिर दोनों रेशमी गाउन पहनें कपड़ों की अलमारियों से भरे एक बड़े से कमरे में से सोने के कपड़े लेकर आईं और जूतों वाले कमरे से मखमली चप्पलें। अप्सरा ने आराम से पलंग पर बैठते हुए कहा, ‘सारा नशा उतार दिया कमबख्त ने। इतनी अच्छी पार्टी थी, सारा मजा किरकिरा हो गया। एक-एक पेग ही बना लो। सोने से पहले कुछ तो मूड ठीक हो वरना रात भर डरावने सपने आते रहेंगे।’

 

‘बनाती हूं। दो-चार जरूरी फोन कर लूं पहले।’ यह कहकर अमीरजादी ने अपने मोबाइल पर तीन-चार लोगों से संक्षेप में बात की और बोली, ‘कुछ जरूरी लोगों से तो बात कर ली। उनका कहना है नाहक परेशान होने की जरूरत नहीं। कोई सवाल उठेगा तो देख लेंगे। एक-दो और लोगों से बात करनी है लेकिन कल।’

 

यह कहकर अमीरजादी ने संगीत चला दिया और दोनों हाथों में एक-एक गिलास पकड़े बेड पर जा बैठीं, बड़े-बड़े नर्म तकियों के सहारे। अब तक वे मेरे लहूलुहान बदन को भूल चुकी थीं। मैं वापस फुटपाथ पर लौट गया। आंधी रुक चुकी थी और मेरे साथी मेरे शरीर के पास खड़े थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था क्या करें। पहले पुलिस को खबर करें या मुझे अस्पताल पहुंचाएं या चंदा इकठ्ठा कर सीधा शमशान ही पहुंचा दें। तभी पुलिस का एक सिपाही गश्त लगाता हुआ वहां आ निकला। दुर्घटना हुई देखकर वह मेरे साथियों की मदद के लिए रुक गया। कुछ ही देर में थाने में भी रपट कर दी गई और मेरे शरीर को अस्पताल भी पहुंचा दिया गया, जहां उसे बेजान घोषित कर दिया गया।  

 

पुलिस सुराग जुटाने में लग गई। पूछने पर उस इलाके में गश्त लगाने वाले सिपाही ने बताया कि उसने एक बड़ी सी कार को बेहद तेज रफ्तार से वहां से जाते देखा था। कार इतनी बड़ी और मंहगी थी कि उसका मॉडल पहचानते देर नहीं लगी। याद करने पर उसकी नंबर प्लेट को देखना और नंबर पढ़ना भी याद आ गया। फिर क्या था अगली सुबह ही एक इंस्पेक्टर दो सिपाहियों को साथ लेकर महल जैसे बंगले पर पहुंच गया। कुतूहलवश मैं भी उसके साथ हो लिया। चेहरे पर गहरा आत्मविश्वास लिए उसने घंटी बजाई। दरवाजा खुला और उन्हें सीधा ड्राइंग रूम में ले जाया गया। लेकिन बैठने के लिए नहीं कहा गया।

 

कुछ पल बाद अमीरजादी और उसकी साथी ने कमरे में प्रवेश किया। इससे पहले कि इंस्पेक्टर अभिवादन के लिए हाथ जोड़ पाता, वह बुरी तरह चौंक गया। तीन-चार कुत्तों ने आकर अमीरजादी को घेर लिया था। चमकती खाल वाले बढ़िया नस्ल के खूबसूरत कुत्ते। सबके गले में लाल रेशमी पट्टा था, जो उनके पालतू होने का सबूत था।

 

कुत्ते खूबसूरत जरूर थे लेकिन उनके चेहरों पर कुछ ऐसा था कि इंस्पेक्टर अनजाने में एक कदम पीछे हट गया। मैं मन ही मन सिहर उठा। एक खौफ मुझ पर हावी हो गया और मैं पसीने में तर-ब-तर हो उठा।

 

भीग जाने के इस एहसास से अचानक मेरी आंख खुल गई। मैं अपने पलंग पर सीधा लेटा था। आंख खुलते ही मुझे अपने कमरे की छत दिखाई दी। खुशी से हैरान, मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मेरे सिर पर छत थी कायम थी कि मेरे हाथ-पैर सलामत थे। उठकर खिड़की खोली। बाहर धूप चमक रही थी, ऊपर निखरा हुआ नीला आकाश था। प्रफुल्ल मन मैंने चाय के लिए बिजली की केतली में पानी गरम होने को रख दिया और दरवाजा खोलकर बाहर से समाचार-पत्र उठा लाया। पहले पृष्ठ पर नजर डाली। ‘दिल्ली की सड़कों पर फिर रफ्तार का कहर, एक भयंकर दुर्घटना’। आगे पढ़ने का मन नहीं हुआ। अगर सच में मैं इस हादसे का शिकार हो जाता तो  सालों-साल पुलिस जुटी रहती, अपराधी को पकड़ नहीं पाती। या पकड़ लेती तो सालों-साल मुकद्दमा चलता और ‘वे’ बेगुनाह पाए जाते। हादसे में मैं मर जाता या सालों-साल मेरे टूटे-फूटे हाथ-पैर ठीक नहीं होते और मेरे अपनों को आजीवन मेरा बोझ ढोना पड़ता या किसी और तरह का हादसा या हिंसा। 

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TAGS: इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, pamela mansi, indian institute of advanced studies, पैमिला मानसी
OUTLOOK 20 September, 2015
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