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11 April 2016

कहानी - किस्सागो

पान खाने से लोगों के होंठ और जीभ लाल होते हैं पर उनकी नाक भभा उठती है। सचेत अवस्था में वह वेद-पुराण, तंत्रमंत्र को बेतरह गालियां देते हैं पर जब भंग की तरंग में होते हैं तो उन्हीं में उन्हें जीवन का सार नजर आता है। बाएं चलना ट्रैफिक नियम है पर उनके लिए वह एक वैचारिक पक्षधरता और प्रतिरोध है। 

अदब के एक महीन उस्ताद ने उनकी इन अड़भंगी आदतों को उस जाहिल से-तंत्र से जोड़ कर देखा है, जो एक लेखक को औघड़ बना देती हैं और उस उस्ताद का कहा मानें तो इसी औघड़ापे से उनका बेजोड़ साहित्य पनपता है। बेशक, वह शब्दों के बड़े कीमियागर हैं। उन्होंने हमारे समय के साहित्य को लगभग बदल कर रख दिया है। लंतरानी के झूठे मयार की उन्होंने हवा निकाल दी तथा चौक-चौराहों, खेत-खलिहानों के दु:ख-दर्द को वह अदब के पन्नों में खींच कर लाए। यहां तक की गली-कूचो की बेरंग दुनिया और उनकी गालियों तक को उन्होंने एक अदबी चेहरा दिया है। चौराहों पर वह गालियां अब गायत्री मंत्र की तरह ली और दी जाती हैं। उनकी इस बेजोड़ कलम को बेमिसाल माना गया तथा जिससे दिल्ली ने भी खुश होकर उन्हें इस साल अदब के सबसे बड़े अकादमी पुरस्कार से नवाजा।

पुरस्कार की खबर उस दिन सभी अखबारों के पहले पन्ने पर थी। सुबह, चाय की चुस्की के साथ इन्हें पढ़ वह बुलबुल हो रहे थे और नाती-पोतों को सुना रहे थे की सहसा किचन से पत्नी की लंतरानी शुरू हुई, 'सब बैठे ठाले, बस खोखले शब्दों का काला जादू है भाई। अरे, रेगिस्तान का वह झुनझुन हवा सांप, 'रैटलस्नेक’ वह भी बिल से बाहर सुबह जब तफरीह को निकलता है तो शाम को लौटने तक अनायास आड़ी-तिरछी रेखाओं की एक देखने लायक आकृति रेत पर बना देता है। पर उसमें जीवन का अर्थ कैसा! यह अलग बात है कि कोई लफंटूश फोटोग्राफर उसे धोखे से कैमरे में कैद कर ले और जोड़-जुगाड़ से उसे कोई बड़ा तमगा मिल जाए और वह सर्पीली आकृति क्लासिक बन जाए।’

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वह तिलमिला उठे। चाय कड़ुआ गई। उन्होंने घूर कर पत्नी को देखा। वह फिक्क से हंसती आंगन में निकल गई। तमतमाए वह भी सटाक से उठे और घर से बाहर निकल गए। वह सड़क पर निकल आए। चमचमाती दुकानें और बदहवास लोग। उनकी उपस्थिति से बेपरवाह लोग। चलते-चलते वह चौराहे पर आ पहुंचे। उनकी मनपसंद जगह। जीवंत लोग। यहां उन्हें ढेर सारी कहानियां मिलती थीं। वह खिल उठे। वह गप्पू की चाय की दुकान पर बैठ गए। यही वह दुकान थी जिसे उन्होंने अपने नए किस्से में अमर कर दिया था। आजकल देश भर में इसकी चर्चा है। अब यहां बड़े-बड़े फनकार आते हैं। सारे जहां के लोग जब मोक्ष की कामना से इस शहर में आते हैं तो इस दुकान को देखने का मोह नहीं तज पाते। कहते हैं, फिल्मी दुनिया का एक बड़ा फनकार इस चौराहे के सम्मोहन में ऐसा फंसा की बंबई को भूल बैठा। आजकल गप्पू के यहां ही गपासट में मशगूल रहता है। एक बार मायानगरी में रहने वाली उसकी माशूका उसे लेने आई तो सबके सामने ही उसे गाली देते हुए बोला, 'भागो इहां से...की।’ देश भर में, उनकी बेमिसाल उस्तादी का साक्ष्य है यह चौराहा और गप्पू की यह दुकान। 

'सुनों लोगों कि केवल ईश्वर ही नहीं, लेखक भी जीवनदाता हो सकता है। केवल अमृत ही नहीं, लेखक भी किसी को अमर कर सकता है।’ उन्होंने सोचा और गर्व से फूल उठे।’ उन्हें यहां बैठा देख आसपास के लोग धीरे-धीरे उनके पास आने लगे। पुरस्कार की बधाइयों का तांता लग गया। वह मंद-मंद मुस्काते रहे।

अचानक मेज पर उन्होंने आज का अखबार बिछाया और ठोंगे में बंद लाई-चना को उस पर उड़ेल कर चटनी के साथ उसे चबाने लगे। उनके आग्रह पर लोगों ने भी उसे चबाना शुरू किया। आसपास खड़े लोग उन्हें देख भकुआए हुए थे।

सहसा शांति को भंग करते उनकी आवाज कुछ यूं निकली, जैसे लहलहाते खेत में कोई सांड़ घुस रहा हो, 'दोस्तों, सच कहिए तो यह पुरस्कार मेरा नहीं, आप सब का है। यह उतना ही झुन्ना गुरु का है जितना की गप्पू का। इसके  हकदार जितने माया सिंह हैं उतने ही बाबू सखा राम यादव। आखिर इन्होंने ही तो मुझे और मेरे किस्सों को रचा है। इस तमगे पर असली हक इस चौराहे का ही है। अनुरोध है मित्रों की इस चौराहे को बचा कर रखिए क्योंकि यह बौराती संसद के खिलाफ हमारे एकजुट हाथों में मजम्मत और खिलाफत का एटम बम है।’

सहसा उनकी आवाज खो गई क्योंकि तभी उस दुकान से थोड़ी ही दूर एक भयानक बम धमाका हुआ। उधर की दुकानों के परखच्चे उड़ने लगे। गाड़ियां धू-धू कर जल उठीं। विषैला धुआं फैलने लगा। लोग बदहवास भागने लगे। वह सन्न अपनी जगह पर बैठे रहे। उन्होंने पाया की सब भाग गए थे और वह जिंदा बच गए थे। लोग धुएं से घिरे खांस रहे थे। धूल-धूसरित गप्पू बदहवास उनसे कह रहा था, 'गुरु! का उजबक की तरह बैठे हैं, अरे बम फटा है, बम! लगता है आतंकवादी हमला है। धोती उठा कर भागिए।’ उन्होंने अनसुना किया और मुट्ठी भर बचा लाई-चना फांक गए। उन्हें निश्चिंत बैठा देख गप्पू कुनमुनाया फिर दुकान की चिंता छोड़ भाग चला। 

थोड़ी देर बाद धुंआ मिट गया। भागदौड़ थमी और चीखने-चिल्लाने की आवाजें शांत हुईं। उनके आसपास अब कोई न था। दूर केवल चिल्लाने और कराहने की आवाजें आ रही थीं। उन्होंने पान दबाया और चूना चाटते दुकान से बाहर निकले। उन्होंने उधर देखा जहां धमाका हुआ था। वह उधर ही चलने लगे। थोड़ी ही दूर जाकर वह ठिठक कर खड़े हो गए।

उनका निश्चय शायद बदल गया। चोरी से दाएं-बाएं देख उन्होंने दाहिनी ओर की संकरी गली का रास्ता पकड़ा। फिर गंगा का किनारा लेते हुए एक तीन मंजिले होटल की छत पर चढ़ गए। छत से कई लोग उस भयानक मंजर को देख रहे थे। वह भी देखने लगे। नीचे, चारो तरफ खून और कराहें थीं। सड़क पर कटे हुए हाथ, पैर फैले थे। चोट से बिलबिलाते लोग मदद की गुहार लगा रहे थे। 

तनी आंखों से इस खूनी मंजर को देखते उन्होंने महसूस किया कि यहां से दृश्य ठीक से फोकस नहीं हो रहा है। वह छत के दूसरे कोने में गए। वहां से भी रौनक न दिखी। उन्हें लगा, शायद सड़क पार उस सामने वाले घर की छत से दृष्टि को ज्यादा विस्तार मिले। सो वहां से उतर, उन्होंने सड़क पार की और उस घर की छत पर चढ़ गए। यहां भी काफी लोग फटी आंखों से धमाके के बाद का मंजर देख रहे थे। वह भी, अवाक इसे देखने लगे। उन्होंने महसूस किया कि खून का मंजर अपनी पूरी नग्नता से सामने बिखरा पड़ा है। नजरें घुमा-घुमाकर उन्होंने इसका विश्लेषण और मूल्यांकन करना शुरू किया।

अचानक उन्होंने देखा की खून से सना एक बच्चा, बीच सड़क पर छटपटाता पड़ा था। उसकी कातर आंखे यहां-वहां देख रही थीं। सहसा उनकी प्रश्नाकुल आंखे, उसकी कातर आंखों से मिलीं। वह द्रवित हो उठे। उन्होंने बगल वालों से कहा, 'नीचे उतर कर कुछ करना चाहिए।’ जवाब में, एक बोला, 'पगला गए हैं क्या और भी बम छुपे हो सकते हैं।’ वह हाथ मलते रह गए। उनका मन हुआ वह नीचे कूद जाएं पर वह ऐसा न कर सके। बेचैन से वह उस छत पर यहां-वहां टहलते रहे।

उदास मन, वह सीढ़ियों से नीचे उतर आए। वह अब घर लौटना चाह रहे थे और टीवी पर इस घटना की पूरी कवरेज देखना चाह रहे थे। वहां रुकना अब बेमानी था। उन्होंने लौटने के लिए दूसरी सड़क पकड़ी और रिक्शे से अपने घर पहुंचे।

उन्हें देखते ही पत्नी हडबड़ाई-सी बोली, 'अरे सुना आपने। आपके किस्सैल चौराहे पर बम फटा है। सुना है कई लोग मारे गए हैं। नाश हो इन जालिमों का। पर आप कहां थे इतनी देर तक?’

बेमन से वह बोले, 'वहीं था।’

पत्नी ने उन्हें घूर कर देखा फिर धीरे से कोंचा, 'हां भाई। आपने तो केवल किस्से-कहानियां इकट्ठा की होगीं और सिर पर पैर रख भाग लिए होंगे।’

पत्नी के ताने से वह तिलमिला उठे पर कहा कुछ नहीं। चुपचाप वह अध्ययन कक्ष में घुसे और कमरा अंदर से बंद कर लिया। लिखने की मेज पर सिर टिकाए कुछ सोचते रहे। फिर डायरी निकाली और कलम उठाई, कांपते हाथों से किस्से का शीर्षक लिखा, 'नरसंहार।’

तभी दरवाजा खटखटाते हुए पत्नी बोली, 'चाय।’

जवाब में ध्वनियों का एक धमाका कमरे से बाहर आया, 'लिखने दो।’

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TAGS: sarvesh singh, kissago, सर्वेश सिंह, किस्सागो
OUTLOOK 11 April, 2016
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