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06 June 2015

कहानी - तकाजा

माधव जोशी

मैंने पहली बार यह महसूस किया कि अगर किसी वाहन से किसी को धक्का लग जाए तो धक्का खाने वाले आदमी से कम दुखी धक्का मारने वाला नहीं होता। उस अवस्था में तो और भी ज्यादा जब धक्का खाए हुए आदमी को गिरा हुआ छोडक़र हम भाग निकलें।

दरअसल मैं भागना नहीं चाहता था, लेकिन कार में पीछे बैठे मेरे बेटे और बहू ने एक स्वर में कहना शुरू कर दिया कि मैं बिना रुके यहां से निकल जाऊं। गति को धीमी होते देख एक ही सांस में दलील देने लगा, 'पापा, रुकने की गलती मत कीजिए, दुर्घटना का कारण जो भी हो, दोषी कार वाले ही ठहराए जाते हैं और लोग बड़ी बेमुरव्वती से पेश आते हैं। बहुत पिटाई लगती है, कार को भी लोग तोडऩे-फोडऩे लग जाते हैं। भाग चलिए तेजी से।’

मेरे पांव जैसे बर्फ की तरह जम गए थे। एक्सेलेटर दब ही नहीं पा रहा था। मुझे चोट खाकर जमीन पर गिरने और तड़पने की प्रतिध्वनि की आवाज से ज्यादा तेज सुनाई पड़ रही थी। असमंजस में घिरी मेरी मन:स्थिति के कारण कार की गति जब कम होने लगी तो इस बार मेरी बहू चेताने लगी, 'पापा जी, क्या कर रहे हैं? चलिए, तेजी से भागिए। देखिए, पीछे से कई लोग हाथ में पत्थर लेकर पीछा कर रहे हैं। कुछ लोग पत्थर फेंक भी रहे हैं।’

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हम भागने में सफल रहे। पास में ही हमारा फ्लैट था। लगभग एक किलोमीटर के फासले पर। हमने गाड़ी को गैरेज में घुसाकर झट ताला मार दिया। मेरी छाती बहुत देर तक जोर से धक धक करती रही। कैसा होगा वह आदमी? किस तबके का होगा? अगर मर गया होगा तो हत्या का पाप ढोना होगा। कहीं वह कोई परिचित तो नहीं था? हो सकता है उसने मुझे पहचान लिया हो।

रात में मुझे नींद नहीं आई। मन उस अभागे आदमी के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता रहा। सुबह अखबार देखने की बेचैनी थी। शायद कोई रिपोर्ट छपी हो इस बारे में। स्थानीय खबर वाले पेज पर सचमुच यह खबर लगी हुई थी। लेकिन उस आदमी के बारे में कोई तफसील से जानकारी नहीं थी। बस लिखा था, 'कार की टक्कर से एक आदमी घायल। धक्का मारकर कार वाला भाग निकला, जिससे साबित होता है कि इंसानियत का तकाजा हमारी जिंदगी से गुम होता जा रहा है। समाचार लिखे जाने तक वह अस्पताल में भर्ती था और उसकी हालत नाजुक बनी हुई है।’

अखबार की इस टिप्पणी से मैं विचलित हो उठा। सचमुच भागकर मैंने दोहरा अपराध किया है। मैं रुक जाता तो लोग जान से तो नहीं मार देते। हम उस आदमी की कुछ मदद तो कर पाते। इतने बड़े अपराध बोध से मैं दबा तो नहीं होता। लोग हम पर गुस्सा उतार लेते तो एक तरह का प्रायश्ति हो जाता।

अगले दिन मैं घटनास्थल पर चला गया। कई दुकानदारों, रेहड़ी और ठेला लगाने वालों से मुझे पूछना पड़ा। अंतत: एक पान-गुमटी वाले से मुझे जानकारी मिल गई। उस गुमटी में वह रोज पान खाने आया करता था। असदुल्ला नाम था उसका। पास ही पीछे के मोहल्ले में उसका घर था। वह दर्जी था। बड़ी दुकानों से वह कोर्ट-पैंट आदि का काम ले आता था और घर में ही सिलाई करता था। कुछ ब्रांडेड रेडीमेड कंपनियों से भी उसे ऑर्डर मिलने लगे थे। पान गुमटी वाले से उसकी अच्छी जान-पहचान थी। उसने बताया कि ठोकर लगने के बाद वह होश में ही था। कुछ लोगों ने सहारा देकर उसे घर पहुंचा दिया। रात बारह बजे के बाद अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी और उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां एक घंटे बाद ही उसका इंतकाल हो गया।

मैं गहरे अफसोस में घिर गया। उसे सीधे अस्पताल न ले जाकर घर ले जाना गलत फैसला रहा। क्या होगा अब उसके परिवार का? गुमटीवाले ने बताया कि घर में उसकी बूढ़ी मां है, जवान पत्नी है जो एक-डेढ़ महीने में मां बनने वाली है। एक जवान भाई है जो मानसिक रूप से अस्वस्थ है। पूरा घर असदुल्ला के ही दम पर चलता था।

मैंने घर में अपने बेटे-बहू को पूरी जानकारी दी। बेटा अजस्र मेरी आंखों में दुख की कराहती छाया भांपकर मुझे संयत करने की कोशिश करने लगा, 'जीवन में यह सब तो लगा ही रहता है, पापा। हजारों-लाखों लोग रोज मर जाते हैं, कुछ कारण से और कुछ अकारण। इन सबके लिए दुखी होने लगेंगे तो जीना मुहाल हो जाएगा। वह आदमी कार के नीचे आकर मरा, ऐसा नहीं कि आपने उसे घर जाकर मार दिया।’

मैंने कहा, 'उसका परिवार एकदम बेसहारा हो गया है, हमें उसकी मदद करनी चाहिए। हम इस लायक तो हैं ही कि मदद कर सकें।’

'मदद करने के नाम पर आप खुद की पहचान क्यों सामने लाकर एक नए लफड़े को आमंत्रित करना चाहते हैं? इस घटना को अपने दिमाग से निकाल दीजिए, पापा।’

'अब तुम इस बहस में न पड़ो। मुझ पर छोड़ दो, जो कुछ किया जा सकता है, मैं करूंगा। यह मेरा इम्तेहान है अजस्र। ऊपर वाले ने हमें इतना सक्षम तो जरूर बना दिया है कि हम इस इम्तेहान का सामना कर सकें।’

सुपुर्दे खाक हो जाने के अगले दिन मैं गुमटी वाले के साथ उसके घर चला गया। वहां एक आर्तनाद सा बह रहा था। घर की दीवारें आंखों से बह रहे आंसुओं से सील सी गई थीं। शोक में डूबे असद की बेगम, अम्मा और भाई से गुमटी वाले ने मेरा परिचय कराया, 'यह हैं जुगल किशोर बाबू। बताते हैं कि असद से इनका बहुत पुराना परिचय है। वर्षों से यह अपने कपड़े असद से ही सिलवाते रहे हैं। हादसे की खबर मिली तो इन्हें बहुत दुख हुआ और अपने को रोक न सके।’

जैसा मैंने कहा था, गुमटीवाले ने कह दिया। अब मेरी बारी थी, 'असद मुझ पर बहुत विश्वास करता था। मेरे ही कहने पर उसने छह माह पहले एलआईसी की एक पॉलिसी ली थी। मैंने एलआईसी में एजेंसी भी ले रखी है। हर माह वह मुझे ही प्रीमियम की रकम लाकर दे दिया करता था। रसीदें और अन्य दस्तावेज मेरे ही पास हैं, उसने लेने की कभी जरूरत नहीं समझी। कहा करता था कि मेरे ही पास ज्यादा सुरक्षित रहेंगी। मैंने एलआईसी ऑफिस में क्लेम कर दिया है, डेथ सर्टिफिकेट मैंने अस्पताल से ले लिया था। आप लोगों को जल्दी ही 2 लाख रुपये की बीमा की रकम मिल जाएगी। इसके अलावा आप लोगों को कुछ भी मदद चाहिए तो मुझे बताने से तिल भर भी संकोच न करें।’

कहकर मैंने एक लंबी सांस ली। किसी ने कोई प्रति प्रश्न नहीं किया। किसी को कोई शक-शुबहा नहीं हुआ। हालांकि दोनों सास-बहू की आंखों में एक अचरज का भाव जरूर था। शायद सोच रही होंगी कि बिन बुलाए यह आदमी खामखां फरिश्तागिरी करने कहां से चला आया। मैंने बहुत राहत महसूस की। आगे कहा, 'मैं आप लोगों से मिलने आता रहूंगा। पास ही रहता हूं इंद्रसभा फ्लैट में।’  

दो-एक दिन में मैं वहां नियमित चला जाने लगा।

एक दिन मेरा मन हो आया कि अपने भीतर बैठे बुरे और भगोड़े आदमी को गाली सुनाई जाए, उसे जलील किया जाए। मैंने सोगरा की दुखती रग पर उंगली रखने की कोशिश की, 'कैसा दुष्ट आदमी था जो धक्का मारकर भाग गया। इतना भी नहीं हुआ कि रुक कर किसी अस्पताल में पहुंचा देता।’

'ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्या पता गलती इनकी ही रही हो। अचानक चलती कार के सामने चले गए हों।’ मैं उसका मुंह देखता रह गया। यह लडक़ी अपने मरहूम शौहर का पक्ष नहीं लेकर एक धक्कामार का बचाव कर रही है।

मैंने उसे उकसाने की कोशिश की, 'गलती किसी से भी हुई हो। एक आदमी जख्मी हो गया, उसे छोड़कर भाग जाना क्या कायराना हरकत नहीं है?’

'रुक कर भी वह कुछ नहीं कर पाता। लोग उसी पर टूट पड़ते। लोगों का रवैया बहुत जालिमाना बन जाता है ऐसे वक्त में। अच्छा हुआ कि उसने वहां से फौरन निकल जाने का फैसला ले लिया।’ वह अपने रुख पर कायम रही। निश्चय ही उसके कहने के अंदाज में मुझे खुश करने या बहला देने की धूर्तता का समावेश कतई नहीं था। उसकी बात उसके अंतर्मन से ही निकलती प्रतीत हो रही थी।

'कुछ भी कहो सोगरा, रुक कर हालचाल पूछना, फर्स्ट एड दिलाना, उसका फर्ज था।’

‘क्या पता उसे कहीं पहुंचने की जल्दी रही हो। रुकने से कोई बड़ा नुकसान हो जाने का अंदेशा हो। कुछ तो उसकी मजबूरी रही होगी।’

मैं स्तब्ध रह गया, क्या इस तरह के विचार उस आदमी के बारे में उस औरत के हो सकते हैं, जिसने उस आदमी के कारण अपना पति खो दिया हो! कहीं ऐसा तो नहीं कि सोगरा ने मेरी असलियत को ताड़ लिया है! अगर ताड़ लिया है तब तो उसे बेजब्त होकर निर्ममता से पेश आना चाहिए। और अगर जानते हुए भी इस तरह तटस्थता से पेश आ रही है तो ऐसे विचार की ऊंचाई मापना किसी के वश में नहीं हो सकता।

मुझे लगा कि सोगरा के कद के सामने मैं बहुत बौना हो गया हूं। मेरा कायल मन सिजदा करते हुए उसे सलाम कर उठा।

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OUTLOOK 06 June, 2015
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