Advertisement
31 October 2019

वास्तविक समाजवादी

समाजवादी चिंतक किशन पटनायक के लेखों के संकलन की नई किताब, संभावनाओं की तलाश पढ़ने के बाद समाजवादियों का इतिहास कौंधा। लोहिया, जेपी, नरेन्द्रदेव से लेकर मधु लिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडिस सब याद आए। वे लोग भी याद आए जिन्होंने समाजवादियों की जाति-विनाश की नीति को खांटी जातिवादी नीति में ढाल दिया और जिनका वैचारिक केंद्र कुल मिला कर जाति ही रह गई।

विकल्प और संभावना किशन जी के प्रिय शब्द थे। अंतोनिओ ग्राम्शी की तरह उनके लिखे नोट्स या लघु आलेख ही उनकी लेखकीय धरोहर हैं। पुस्तक दो खंडों में है। पहले खंड का शीर्षक है, ‘जाति, आरक्षण और शूद्र राजनीति’ दूसरा खंड है, ‘समाजवाद : बदलते संदर्भ।’ पहले खंड में सामाजिक सवालों से अधिक रूबरू होने की कोशिश है। वहीं, दूसरे में समाजवाद के मुख्य मुद्दों पर विचार किया गया है।

जिन लोगों की उम्र साठ पार की है और जो हिंदी प्रदेश से जुड़े रहे हैं, वे याद कर सकते हैं जब समाजवादी राजनीति में सक्रिय थे। समाजवादियों के होते गरीब-गुरबों की आवाज दबाना मुश्किल जान पड़ता था। वे लोकतांत्रिक रिवाजों के भी प्रहरी थे। सब से बड़ी बात कि वे चापलूस और डरपोक नहीं थे। जातिवादी-पूंजीवादी समाज में आरक्षण के बूते थोड़ी सी जगह बना लेना और अंततः उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाना इनका मकसद बन गया है। वह इस तथ्य को नहीं समझना चाहते थे कि जाति-व्यवस्था के इस जमाने में असली पहरुए वॉशिंगटन और टोकियो में बैठे हैं। जातिवाद और साम्राज्यवाद में एक गहरा रिश्ता बन चुका है। किशन जी की इस किताब को पढ़ कर कोई इस नतीजे पर आ सकता है कि सत्ता में पहुंचने की जल्दीबाजी और जोड़ -तोड़ की रणनीति ने इस आंदोलन को अधिक नुकसान पहुंचाया। इसकी शुरुआत नेहरू विरोध और कांग्रेस हटाओ की रणनीति से हुई जिसने उसे जनसंघ की दक्षिणपंथी राजनीति की गोद में डाल दिया। 

Advertisement

किशन जी ने उस गांधी को समझने की कोशिश की है, जो निरंतर परिवर्तनशील थे। 1930 के पूर्व के गांधी 1930 के बाद नहीं थे। किशन जी ने यह कहने का साहस किया है कि आंबेडकर ने गांधी को प्रभावित किया। किशन जी को देखें, ‘गांधी ने सुभाष बोस की चुनौती को कभी नहीं माना, लेकिन आंबेडकर की चुनौती को माना। गांधी जैसा आदमी जब किसी चुनौती को मानता है तो वह उसे व्यक्तिगत जिद के तौर पर नहीं मानता। इस चुनौती को मानना शक्ति-परीक्षा के तौर पर नहीं था। इसलिए वक्त की जो बुनियादी समस्या गांधी जी से ओझल थी वह उनके लिए उजागर हो गई और उसके बाद गांधी से ज्यादा हरिजन को उठाने वाला कोई न था।’ 

किशन पटनायक न जेपी की तरह संतई भाषा बोलते हैं, न भूलते हैं कि वह मूलतः मार्क्सवादी हैं, गांधीवादी या विनोबावादी नहीं। वह कम्युनिस्टों की तरह मार्क्सवाद को भी बांझ अर्थों में नहीं स्वीकारते। किशन जी अधिक शफ्फाक दीखते हैं, लोहिया और जेपी दोनों से अधिक। उन्होंने भारत में समाजवादी विचारधारा की उस कड़ी को आगे बढ़ाया है, जिसे नरेन्द्रदेव ने प्रस्तावित किया था। आज के राजनैतिक माहौल में इस किताब की खास जरूरत है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: book review, sambhavnao ki talash
OUTLOOK 31 October, 2019
Advertisement